अध्याय १०
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।४२।।
सुनो मेरी प्रिय सखी! भगवान क्या कहते हैं!
शब्दार्थ :
१. जितना तूने जान लिया, इसके अतिरिक्त और बहुत कुछ जानने से तुझे क्या?
२. बस इतना समझ और जान ले,
३. कि यह पूर्ण जग मैं अपने एक अंश से धारण करता हूँ।
तत्व विस्तार :
यहाँ देख भगवान क्या कहते हैं! यह पूर्ण दृष्ट जहान जो तुम देख रहे हो,
1. वह केवल मेरा वैश्वानर रूप है।
2. वह केवल मेरा एक पाद है।
3. वह केवल मेरा स्थूल रूप है।
4. वह केवल मेरा दृष्ट रूप है।
तू इतना ही जान ले कि :
क) यह संसार मेरा ही है और मैं ही हूँ।
ख) यह संसार मैंने ही रचा है।
ग) यह संसार मैंने ही धारण किया हुआ है।
घ) इसका भरण पोषण मैं स्वयं करता हूँ।
ङ) इसमें हर शक्ति मेरी ही दी हुई है।
च) हर काज कर्म मेरे ही नियम से बंधे हुए हैं।
छ) किसी के हाथ कुछ नहीं है।
ज) गुण गुणों में वर्त रहे हैं।
झ) सब स्वत: ही हो रहा है।
नन्हीं! भगवान की यह सम्पूर्ण बातें सुन कर यदि इन्हें सच मान लिया जाये तो:
1. इन्सान अपने आपको कर्त्ता नहीं मानेगा।
2. जीव तनत्व भाव छोड़ ही देगा।
3. जीव ममत्व भाव छोड़ ही देगा।
4. जीव दूसरों पर से अपना अधिकार छोड़ ही देगा।
5. जीव मिथ्या आसक्ति छोड़ ही देगा।
6. जीव अपने आप से राग छोड़ ही देगा।
7. जब भगवान स्वयं दुष्ट, दुराचारी तथा साधु सन्त, दोनों को ‘अपना आप’ कहते हैं तो जीव का द्वेष ख़त्म हो ही जायेगा।
नन्हीं!
क) भगवान सबको मानो आत्म रूप स्पष्ट कह रहे हैं।
ख) भगवान सबके साथ तद्रूप हो रहे हैं।
ग) भगवान सबके साथ अद्वैत में वर्त रहे हैं।
घ) किन्तु भगवान को किसी से भी संग नहीं है।
ङ) भगवान को अपने तन से भी संग नहीं है।
च) भगवान को अपने या किसी अन्य के गुणों से भी संग नहीं है।
जैसे कोई भगवान को भजता है, भगवान उसको वैसे ही भजते हैं। जैसे किसी की श्रद्धा होती है, भगवान उसकी श्रद्धा को दृढ़ करते हुए, उसे वही देते हैं, जो उसकी माँग हो। किन्तु दूसरे के साथ तद्रूपता रखते हुए भी भगवान का किसी से संग नहीं है। वह नित्य निरासक्त हैं।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम
दशमोऽध्याय:।।१०।।