Chapter 11 Shloka 9

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि:।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।९।।

Sanjay, speaking to Dhritrashtra, said:

O King, having spoken thus,

Sri Krishna, the supreme Lord of Yoga,

forthwith revealed to Arjuna

His supremely glorious, divine form.

Chapter 11 Shloka 9

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि:।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।९।।

Sanjay, speaking to Dhritrashtra, said:

O King, having spoken thus, Sri Krishna, the supreme Lord of Yoga, forthwith revealed to Arjuna His supremely glorious, divine form.

You ask how Arjuna could grasp the Lord’s explanation so quickly?

Arjuna’s state

Look Kamla:

a) Arjuna was extremely knowledgeable.

b) He had studied all the Scriptures.

c) He had already acquired knowledge from great sages.

d) He was extremely dutiful and conscientious.

e) He worshipped his mother and his brothers and had given proof of his devotion towards them.

f) He was a great warrior and immensely brave.

g) He was just.

h) He protected even his enemies.

i)  He adhered to dharma in life.

j)  At his elder brother’s behest, he even accepted the injustice meted out to him and consequently had to live in exile in the forest.

k) He was replete with divine attributes and respected his elders.

Seeing all this, it would be wrong on our part to consider Arjuna to be an ordinary person.

Consider the reason for Arjuna’s dilemma and sorrow:

a) Bhishma Pitamah, for whom Arjuna would have even given his life, stood opposed to him in battle.

b) Those whom Arjuna revered as his Gurus stood before him as his enemies.

c) Those relations, for whom he was prepared to do everything possible, stood before him as his enemies.

­­–  They were all siding with injustice.

­­–  They were all siding with the sinners.

­­–  They too, had chosen to sin along with the sinners whom they sided.

Yet Arjuna, who was virtuous, dutiful and respectful, was in doubt. He knew well that those who stood before him were sinners, yet he did not wish to commit any sin himself.

He said to the Lord, “I am filled with moha; I have forgotten my basic nature. I have forgotten the path of shreya or the path of virtue. I seek Thy refuge. I am Thy disciple. Pray grant me Thy guidance.” (Chp.2, shloka 7)

At that moment, Arjuna was devoid of:

a) his pride of courage;

b) pride of being a Kshatriya (a member of the warrior caste);

c) pride of intellect;

d) pride of fortitude;

e) pride of knowledge and its applied practice;

f) pride of action;

g) pride of his own greatness.

Devoid of all pride, he sought the refuge of the Lord:

1. He sought the Lord’s refuge in the name of dharma.

2. He sought the Lord’s refuge in the name of duty.

3. He sought the Lord’s refuge in order to tread the righteous path.

4. He sought the Lord’s refuge in order to establish the Truth in accordance with dharma.

Thus, it was comparatively easy for Arjuna to understand and follow the Lord’s injunctions. At this moment his own ego was also quelled, thus he could understand the Lord’s words. He could therefore renounce the body idea and perceive the point of view of the Lord; for, the veil of his personal body, mind and intellect along with the ego had been lifted and he could see things clearly.

अध्याय ११

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि:।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।९।।

संजय बोले धृतराष्ट्र से :

शब्दार्थ :

१. हे राजन्!

२. महायोगेश्वर हरि ने इस प्रकार कह कर,

३. अपना परम ईश्वरीय दिव्य रूप,

४. अर्जुन को दिखाया।

तत्व विस्तार :

तुम पूछती हो कि अर्जुन को इतनी जल्दी कैसे समझ आ गई?

अर्जुन की स्थिति :

देख कमला!

क) अर्जुन महा ज्ञानवान् था।

ख) वह पूर्ण शास्त्र पठन कर चुका था।

ग) वह पहले ऋषिगण से भी ज्ञान पाया था।

घ) वह अतीव कर्तव्य परायण था।

ङ) भ्रातृ और मातृ भक्ति के अनेकों प्रमाण हैं उसके जीवन में।

च) वह महा पराक्रमी तथा शूरवीर था, जान की भी परवाह नहीं करता था।

छ) इतना बलवान् होते हुए भी वह न्याय पूर्ण था।

ज) वह अपने दुश्मनों को भी बचाता था।

झ) वह धर्म परायण भी था।

ञ) अनुचित न्याय को भी उसने अपने बड़े भाई के कहने पर शिरोधारण किया और इस कारण जंगलों में रहना पड़ा।

ट) वह दैवी गुण सम्पन्न था। अपने बुज़ुर्गों का आदर करता था।

यह सब देखते हुए अर्जुन को एक साधारण व्यक्ति मान लेना हमारी भूल होगी। वास्तव में अर्जुन के शोक का कारण भी तो देख :

अर्जुन के शोक का कारण :

1. जिनके लिए वह जान भी दे सकते थे, आज वही पितामह भीष्म रण में उनके शत्रुओं के गिरोह में खड़े थे।

2. जिन्हें, उन्होंने नित्य गुरु मान कर पूजा था, वही द्रोण दुश्मन बन कर सामने खड़े थे।

3. जिन नाते बन्धुओं के लिये वह सब कुछ करने को तैयार थे, वही शत्रु रूप में सम्मुख खड़े थे।

क) वे सब ही अन्याय का साथ दे रहे थे।

ख) वे सब ही पापियों का साथ दे रहे थे।

ग) वे सब ही पापियों के साथ पापी बन चुके थे।

फिर भी दैवी गुण पूर्ण, कर्तव्य परायण, नित्य आदर सत्कार करने वाले अर्जुन के मन में संशय उठ आया। वह यह जानते थे कि उनके सामने खड़े शत्रु पापी हैं, किन्तु वह स्वयं पाप नहीं करना चाहते थे, इस कारण घबरा गये।

भगवान से भी उन्होंने कहा था, “कार्पण्यदोषोपहत स्वभाव: – – – -” (2/7)

– ‘मैं मोह युक्त हो गया हूँ।

– मैं अपना स्वभाव भूल गया हूँ।

– मैं श्रेय पथ भूल गया हूँ।

– मैं आपकी शरण पड़ा हूँ।

– मैं आपका शिष्य हूँ, आप मुझे शिक्षा दीजिये।’

ज्ञान प्राप्त करने के बाद अर्जुन की स्थिति :

उस समय अर्जुन का :

1. वीरता का गुमान,

2. क्षत्रियता का गुमान,

3. बुद्धि का गुमान,

4. धीरता का गुमान,

5. ज्ञान विज्ञान का गुमान,

6. कर्म करने का गुमान,

7. श्रेष्ठता का गुमान,

ख़त्म हो चुका था। यानि, वह पूर्ण गुमान गंवा कर भगवान की शरण में आया था।

क) वह धर्म के नाम पर भगवान की शरण में आया था।

ख) वह कर्तव्य के नाम पर भगवान की शरण में आया था।

ग) वह श्रेय पथ जानने के लिये भगवान की शरण में आया था।

घ) वह सत् धर्म अनुष्ठान करने के लिये भगवान की शरण में आया था।

इस कारण उसके लिये भगवान की बातों को समझना और उनका अनुसरण करना आसान था। इस पल उसका अपना भी अहंकार गौण था, इसलिये वह सब कुछ समझ सकता था। वह तनत्व भाव को छोड़ कर भगवान के दृष्टिकोण से देख सकता था, क्योंकि उसकी दृष्टि पर से उसके निजी तन, मन, बुद्धि तथा अहंकार का पर्दा उठ गया था।

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