अथ सप्तमोऽध्याय:
श्री भगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।१।।
देख नन्हीं! करुणापूर्ण, भक्त वत्सल, भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! मेरे में आसक्त मन वाला,
२. मेरे परायण हुआ,
३. योग में जुड़ता हुआ (तू)
४. बिना संशय के, मुझको जैसे सम्पूर्ण जानेगा, उसे तू सुन।
तत्व विस्तार :
भगवान की करुणा :
देख नन्हीं! भगवान की करुणा पूर्णता देख !
1. वह अपने आपको अपने प्रिय भक्त के सामने निरावरण करने लगे हैं।
2. वह अपने भक्त को अपना ही स्वरूप तथा रूप दर्शाने लगे हैं।
3. वह अपने भक्त को अपने ही आत्म स्वरूप तथा रूप की वास्तविकता समझा कर उसके सन्देह का विमोचन करने लगे हैं।
भगवान कहने लगे हैं कि :
1. मुझ में चित्त लगाकर,
2. मेरे ही आश्रित हुआ,
3. और योग का अभ्यास करता हुआ,
4. जैसे तू मुझे सन्देह रहित होकर जानेगा, उसे सुन।
यह समझ ले नन्हीं! यदि तुम्हारा चित्त भी भगवान में लगा हुआ हो और तुम जीवन में भी भगवान का आश्रय लेती हो, यदि तुम्हारे मन में भी आत्मवान् बनने की एकमात्र चाहना हो, यदि तुम केवल आत्म स्वरूप भगवान से योग के अभ्यास में ही तत्पर रहती हो, यदि तुम भी हर पल भगवान के तत्व को अपने जीवन का आधार बनाना चाहती हो, तब जो भगवान अपना स्वरूप तथा रूप समझाने लगे हैं, उसे तू भी समझ जायेगी।
भगवान में श्रद्धा :
– यदि तुझे भगवान में श्रद्धा ही नहीं हुई, तब उन्हें समझना कठिन ही नहीं, असम्भव है।
– यदि तुम्हारी भगवान में दृढ़ निष्ठा ही नहीं हुई, तब उन्हें समझना कठिन ही नहीं, असम्भव है।
– यदि तुम अभी इतना भी नहीं माने कि तुम आत्मा हो तो भगवान के इस स्वरूप तथा रूप को समझना नामुमकिन है।
कम से कम इतना तो मान लो कि भगवान जो कहते हैं, सत्य ही कहते हैं।
याद रहे, अर्जुन के लिये भगवान की बातों को समझना और भी कठिन था। भगवान एक साधारण तनधारी के समान सामने खड़े थे और कह रहे थे कि वह तन नहीं हैं बल्कि आत्मा है। फिर भी भगवान इतने प्रेम से उन्हें समझाने लगे, मानो वह कह रहे हों, कि अर्जुन!
1. तू मुझ से योग करना चाहता है, तो पहले मुझे समझ ले।
2. तू मेरे परायण होना चाहता है, तो पहले मुझे समझ ले।
3. तू मेरा आश्रय लेना चाहता है, तो पहले मुझे समझ ले।
4. यदि तू मुझे जानना चाहता है, तो ले देख कि मैं क्या हूँ?