अथ तृतीयोsध्याय:
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।१।।
अर्जुन भगवान से कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. हे जनार्दन!
२. यदि कर्मों की अपेक्षा आप ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हो,
३. तो फिर हे केशव! मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों लगाते हो?
तत्व विस्तार :
अर्जुन भगवान से कहने लगे कि हे जनार्दन!
क) आप मुझे आत्मा का ज्ञान देते हो;
ख) आप बुद्धि की बातें करते हो;
ग) आप योग की विधि बताते हो;
घ) आप इन्द्रिय संयम की बातें कहते हो;
ङ) फिर मुझे कहते हो कि मैं आपके परायण हो जाऊँ;
च) आप आत्म तत्व की बातें भी करते हो;
छ) आप अहं रहितता की बातें करते हो;
ज) आप संग त्याग की बातें करते हो;
झ) आप सुख दु:ख, जय पराजय में समत्व भाव की बातें भी करते हो;
ण) फिर, यह भी कहते हो कि भोगैश्वर्य में चित्त नहीं होना चाहिये;
ट) बुद्धियुक्त मनीषीगण अमृतपद को पाते हैं, यह भी आपने कहा;
ठ) फिर नित्य समाधिस्थ की बातें भी आपने बताईं;
ड) सुख दु:ख, शुभ अशुभ जो भी मिले, उसके प्रति न प्रसन्न होना चाहिये न द्वेष करना चाहिये, यह भी आपने कहा है;
ढ) फिर आपने कहा, जो सम्पूर्ण कामनाओं को और अहंकार को त्याग दे और ममत्व भाव रहित हो जाये, वह आत्मवान् हो जाता है।
आप यदि इस सब ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हो, तो फिर मुझे क्यों बार बार कहते हो कि मैं युद्ध करूँ? और वह भी इतना घोर तथा भयंकर कर्म, जिसे देख कर ही जी घबरा जाता है।