अध्याय ११
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।१९।।
देख कमला! अर्जुन पुन: पुन: वही बात कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित,
२. अनन्त वीर्य युक्त,
३. अनन्त भुजाओं वाला,
४. शशि और सूर्य के समान नेत्रों वाला,
५. प्रज्वलित अग्नि जैसे मुख वाला,
६. और अपने तेज से इस जगत को,
७. तपाते हुए देखता हूँ।
तत्त्व विस्तार :
क) भगवान स्वयं साधक का अभ्यास करा रहे हैं।
ख) अर्जुन पूर्ण की पूर्णता को बार बार बयान कर रहा है।
ग) आत्मवान् का यह दर्शन है, जिसका भगवान के सम्मुख वर्णन कर रहा है।
घ) यह जीव की मानो ‘परम के दृष्टिकोण’ की व्याख्या है।
ङ) यह प्रथम साक्षात्कार की विस्मयपूर्ण झलक है।
च) अभी उसकी ‘मैं’ कुछ बाकी है; अभी ‘तू’ भी बाकी है, पर वह वास्तव में जग का स्वरूप कुछ कुछ समझने लगा है।
छ) आत्म तत्त्व बिना यहाँ कुछ नहीं, यह वह समझने लगा है।
ज) व्यक्तित्व किसी का कुछ नहीं, यह वह समझ रहा है।
झ) जड़ चेतन की अभिन्नता का उसे आभास होने लगा है।
ञ) जिसकी रचना है, उसका आभास होने लगा है।
ट) परम अखण्ड ब्रह्म के खण्डन का राज़ मानो कुछ कुछ खुल रहा है।
तत्त्व ज्ञान पाकर अर्जुन की स्थिति :
क्यों न कहूँ,
1. अर्जुन समाधि में खड़ा है, पर ‘मैं’ प्रधान है।
2. उसकी आँख खुली है, पर जहाँ जाती है, वहाँ समाधि लग जाती है।
3. उसकी दिव्य दृष्टि स्थूल नाम रूप के पीछे निहित परम तत्त्व को देखती है।
4. उसकी दिव्य दृष्टि स्थूल, व्यक्त नाम रूप के पीछे अव्यक्त, परम शक्ति को देख लेती है।
5. योगत्व स्थित अर्जुन जग को भूला हुआ है।
6. अपने प्रति मानो प्रगाढ़ निद्रा में सो रहा हो। अपने तन, मन, बुद्धि का उसे अनुसंधान नहीं रहा।
7. पर बाहर जग को देख रहा है और उसमें पूर्ण की पूर्णता देख रहा है।
अब अर्जुन कहते हैं कि, ‘भगवान! आप आदि, अन्त, और मध्य से रहित हो। यानि, आप उत्पत्ति, स्थिति और लय से परे हो। आप अनन्त शक्ति पूर्ण हो; आप अनन्त भुजाओं वाले हो, सो पूर्ण कार्य करने वाले हो। आपके नेत्र चन्द्रमा और सूर्य हैं। प्रज्वलित अग्नि ही आपका मुख है। जो भी उसमें पड़ता है, भस्म हो जाता है। आप अपने ही तेज से सम्पूर्ण संसार को तपा रहे हो।’