The Path of Sankhya Yoga

Chapter 2 Shloka 1

संजय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।१।।

 

Sanjay says:

Lord Madhusudan spoke as follows

to the sorrowful Arjuna,

who was overcome with piteous distress

and whose agonised eyes were full of tears.

The Path of Sankhya Yoga

Chapter 2 Shloka 1

संजय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।१।।

Sanjay says:

Lord Madhusudan spoke as follows to the sorrowful Arjuna, who was overcome with piteous distress and whose agonised eyes were full of tears.

Listen little one, Sanjay again reveals Arjuna’s piteous state. Arjuna’s heart was filled with great commiseration, mercy, compassion and forgiveness.

Tears welled up in Arjuna’s eyes:

1. Attachment had captured his heart;

2. He felt helpless;

3. Extreme cowardice gripped him;

4. He was torn between conflicting forces.

Arjuna was seized with fear and began doubting his own decision to wage a war.

Then Sanjay states that Arjuna was filled with sorrow. He became fearful, troubled, grief stricken, full of remorse, confused, uneasy and devoid of peace.

Arjuna’s sorrow robbed him of all enthusiasm. Labouring under great mental stress, he became immobilised by his depression.

What was the reason for Arjuna’s agony?

1. Upon seeing his relations standing before him, his moha was awakened.

2. Arjuna was endowed with divine qualities and became attached to his own image of greatness.

3. His delusion prevented him from discerning between the essence and the external manifestation of divinity.

4. Even though he had waged wars against the unjust and unrighteous all his life, now that his own relations stood before him:

­­–   he forgot even his own dharma;

­­–   he misinterpreted knowledge to justify his present decision;

­­–   his earlier acts of annihilating sinners and oppressors now seemed fraught with sin.

The result of forsaking justice

If one’s standard of justice changes when confronted with one’s relations, then fear, uncertainty, grief and unhappiness are inevitable. Arjuna’s thoughts concerning the Kauravas and their associates were incorrect because they were not based on the truth but were coloured by Arjuna’s attachment. Actually this dilemma arises only in the minds of those who are good and who try to adhere to the path of duty. It is such people who are the most anguished when confronted with such a situation.

अध्याय २

अथ द्वितीयोऽध्याय:

संजय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।१।।

संजय कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१.  उस ऐसे कृपा से भरे हुए,

२.  अश्रुपूर्ण और व्याकुल नेत्रों वाले,

३.  तथा शोकयुक्त अर्जुन को,

४.  भगवान मधुसूदन* ने यह वाक्य कहा।

*(‘मधुसूदन’ के तत्व अर्थ के लिये प्रथम अध्याय का श्लोक ३४ और ३५ देखिये।)

तत्व विस्तार :

सुन नन्हीं!

यहाँ संजय पुन: अर्जुन की स्थिति दर्शा रहे हैं। अर्जुन कृपा से भरे हुए थे। यानि, उनके मन में :

1.  अतीव रहम भरा हुआ था।

2.  दयालुता भरी हुई थी।

3.  करुणा भरी हुई थी।

4.  क्षमा का भाव भरा हुआ था।

5.  उनका मन अनुकम्पा पूर्ण हो गया था।

फिर कहा अर्जुन के नयन ‘अश्रुपूर्ण’ हो गये, क्योंकि उनके मन में :

1.  मोह जागृत हो गया था।

2.  कृपणता जागृत हो गई थी।

3.  अतीव भीरुता ने जन्म ले लिया था।

4.  द्वन्द्व उत्पन्न हो गये थे।

अर्जुन घबरा गये थे। वे युद्ध करने के अपने ही निश्चय से विचलित हो गये थे।

फिर संजय ने कहा कि अर्जुन ‘व्याकुल’ हो गये। व्याकुल का अर्थ है :

विचलित हो जाना; घबरा जाना; किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाना; भयभीत हो जाना; परेशान हो जाना; चिन्ताग्रस्त हो जाना; सन्ताप पूर्ण हो जाना; विक्षेप पूर्ण हो जाना; अशान्त और बेचैन हो जाना।

फिर संजय ने कहा अर्जुन ‘शोक युक्त’ हो गये यानि :

1.  दु:खी, उदास तथा उत्साह हीन हो गये।

2.  अर्जुन का मन मलिन हो गया।

3.  अर्जुन संज्ञा हीनता यानि जड़ता को पा गये।

4.  महा उद्विग्नता पूर्ण हो गये।

अब यह देख मेरी नन्हीं जान्! यह सब क्यों हुआ? अर्जुन की व्याकुलता क्यों?

क्योंकि :

क) अर्जुन को अपने नाते रिश्तों को देख कर मोह उठ आया।

ख) अर्जुन दैवी गुण सम्पन्न थे और अपने ही गुणों से संग कर बैठे।

ग) अर्जुन अपने मोह के कारण सत्त्व गुण के रूप और स्वरूप में भेद नहीं समझ सके।

घ) अर्जुन के सब बन्धु जब तक सम्मुख नहीं खड़े हुए थे, तब तक वह अधर्मी तथा अन्यायियों से नित्य युद्ध करते थे। अब जब अपने ही कुल वाले सामने आ गये तो:

–   अर्जुन अपने सहज गुण भी भूल गये।

–   ज्ञान का अर्थ भी बदल गया।

–   पहले आततायियों को मारना पुण्य समझते थे, अब उसे ही पाप कहने लगे।

न्याय त्याग का फल :

जब इन्सान जीवन में अपने ही न्याय को बदलना चाहता है या जीवों का अपने से नाता देख कर न्याय बदल देता है, उस समय यही हाल होता है।

तब इन्सान :

1.  भयभीत हो जाता है।

2.  तड़प जाता है।

3.  व्याकुल भी हो जाता है।

4.  शोकाकुल भी हो जाता है।

कौरव कुल तथा उनके सहयोगी गण के प्रति अर्जुन के ये सब भाव उठने अनुचित थे, क्योंकि यह सत् पर आश्रित नहीं थे बल्कि मोह के कारण उत्पन्न हुए थे।

वास्तव में ऐसा द्वन्द्व अच्छे लोगों में ही उठता है। वही लोग कर्तव्य परायण हुए, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं, तड़प जाते हैं।

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