अध्याय ५
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थित:।।२०।।
अब भगवान ब्रह्म ज्ञानी के लक्षण तथा नित्य आनन्दमय स्थिति की कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. जो प्रिय को पाकर प्रसन्न नहीं होते,
२. अप्रिय को पाकर दु:खी नहीं होते,
३. वे विमूढ़ता रहित, स्थित बुद्धि, ब्रह्म वेत्ता ब्रह्म में स्थित हैं।
तत्व विस्तार :
भगवान समचित्त के लक्षण स्पष्ट करते हुए कहते हैं :
क) प्रिय से उसे राग नहीं होता;
ख) प्रिय से वह अनुरक्त नहीं होता;
ग) अप्रिय से उसे द्वेष नहीं होता;
घ) अप्रिय के त्याग की उसे चाह नहीं होती;
ङ) प्रिय या अप्रिय को पाकर उसके मन में उद्विग्नता नहीं उठती;
च) बुद्धि उसकी स्थिर रहती है;
छ) उसकी बुद्धि पक्षपात नहीं करती;
ज) उसकी बुद्धि विचलित नहीं होती;
झ) उसे रुचि अरुचि भरमा नहीं सकती;
ञ) उसका मोह नहीं उठ सकता;
त) उसकी बुद्धि नित्य सम ही रहती है।
थ) वह नित्य समचित्त ही रहता है;
नन्हीं! ‘असंमूढ़’ का अर्थ समझ ले :
‘असंमूढ़’ :
1. जो मोह से मोहित नहीं हुआ,
2. जो उद्विग्नता से ग्रसित न हो,
3. जो विभ्रान्त न हो सके,
4. जो विचलित न हो सके,
5. जो नित्य शान्त रहे,
6. जिसकी बुद्धि निर्मल तथा शुद्ध हो,
7. जिसका मन अपने वश में हो,
8. जो नित्य सत्य में रहता हो,
9. जो नित्य संशय रहित हो,
उसे असंमूढ़ कहते हैं।
स्थिर बुद्धि :
स्थिर बुद्धि उसकी होती है, जो :
क) नित्य अप्रभावित रहे,
ख) नित्य न्याय कर सके,
ग) नित्य अपने तथा दूसरे के गुणों से भी प्रभावित न हो सके,
घ) नाते या सम्बन्धियों से भी प्रभावित न हो सके,
ङ) अपनी मान्यताओं से भी प्रभावित न हो,
च) अपनी चाहनाओं से भी प्रभावित न हो,
छ) नित्य अपनी हानि और लाभ से भी प्रभावित न हो सके,
ज) नित्य अपने मान और अपमान से भी प्रभावित न हो सके,
झ) अपनी ही मृत्यु से भी प्रभावित न हो सके,
ञ) किसी अन्य की मृत्यु से भी प्रभावित न हो सके,
वह ब्रह्म वेत्ता नित्य आत्म में स्थित होते हैं।