अध्याय १८
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः।।७७।।
संजय पुनः कहते हैं धृतराष्ट्र से :
शब्दार्थ :
१. हे राजन्! श्री हरि के,
२. उस अतीव अद्भुत रूप को भी,
३. पुनः पुनः स्मरण करके,
४. मेरे चित्त में महान् आश्चर्य होता है
५. और मैं बार बार हर्षित होता हूँ।
तत्त्व विस्तार :
अब संजय :
क) भगवान के अद्भुत रूप की बात कहते हैं।
ख) उन्होंने भगवान का जो विराट रूप देखा, उसकी बात कहते हैं।
ग) भगवान की एक तन से तद्रूपता छोड़ कर पूर्ण से तद्रूपता की बात कहते हैं।
तनो संग छोड़ने का परिणाम :
देख मेरी जान्! तुझे एक बात समझाऊँ! जब जीव एक तन से संग छोड़ देता है, एक तन से सम्बन्ध तोड़ देता है, अपने आप को तन मानना छोड़ देता है; जब जीव पंच तत्त्व के एक बुत से संग छोड़ देता है, तब वह:
1. मानो आत्मा से नाता जोड़ लेता है।
2. मानो आत्मा के तद्रूप हो जाता है।
3. मानो आत्मा से योग कर लेता है।
4. मानो आत्मवान् हो जाता है।
5. तब उसका अपना कोई भी नाम रूप नहीं रहता।
6. फिर या वह सब कुछ है, या वह कुछ भी नहीं रहता।
पुनः सुन! आत्मा से एकरूपता ही योग है।
भगवान का विराट रूप समष्टि से तद्रूपता का परिणाम है :
जब भगवान ने अपना विराट रूप दिखाया, तब वह :
क) व्यक्तिगत तनो तद्रूपता छोड़ कर समष्टि ब्रह्माण्ड को अपना तन जान कर दिखा रहे थे।
ख) ब्रह्म की पूर्णता से तद्रूप होकर बता रहे थे।
ग) वह अर्जुन को भगवान का स्वरूप समझा रहे थे।
घ) वह अर्जुन को योगेश्वर का दृष्टिकोण समझा रहे थे।
ङ) वह अर्जुन को योगेश्वर की, ब्रह्म से योग के बाद की दृष्टि दिखा रहे थे।
च) आत्मवान् की स्थिति दर्शा रहे थे।
छ) आत्मवान् की आन्तरिक दृष्टि समझा रहे थे।
ज) जो सब कुछ ही आप हो, वह अद्वैत में स्थित ही होता है, यह समझा रहे थे।
झ) जो सब कुछ ही आप हो, वह अद्वैत, अखिल रूप स्वयं होगा।
ञ) जो सब कुछ ही आप हो, वह एक तन से संग क्या करेगा?
ट) जो सब कुछ ही आप हो, उसका मित्र कौन, वैरी कौन, यह समझा रहे थे।
वह तो अखिल तन स्वयं आप हैं, यह समझा रहे थे।
नन्हीं संजय कहते हैं कि इस विराट रूप के दर्शन करके वह बार बार मुदित हो रहे हैं; बार बार आश्चर्यचकित हुए देख रहे हैं।