अध्याय १८
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।३८।।
अब भगवान राजस सुख के विषय में अर्जुन को बताते हैं और कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से होता है।
२. वह पहले अमृत तुल्य और परिणाम में विष के समान होता है।
३. वह राजस सुख है।
तत्त्व विस्तार :
अब भगवान राजस सुख की बात करते हैं कि वह आरम्भ में तो अमृत के समान होता है किन्तु परिणाम में विषपूर्ण होता है।
नन्हीं! प्रथम रजोगुण को पुनः समझ ले।
क) रजोगुण कर्म फल आसक्ति से बान्धता है।
ख) रजोगुण से राग और कामना उत्पन्न होती है।
ग) यह जीव को विषय उपार्जन के लिए नित्य कर्म प्रवृत्त करता है।
घ) धर्म अधर्म, कर्तव्य अकर्तव्य को न जानने वाला यह गुण हिंसक होता है।
आभा! तू स्वयं सोच! गर जीव ऐसे गुण से प्रेरित होगा तो वह कैसे काज करेगा?
क) वह तो विषयों का चाकर होगा।
ख) उसके और वांछित विषय के मिलन की राह में जो भी आयेगा, उसे वह केवल राह का पत्थर जान कर तोड़ देगा।
ग) चाहे किसी का घर टूटे, रजोगुणी को परवाह नहीं होती, उसे तो अपनी कामना पूर्ति चाहिये।
घ) चाहे किसी का कुल नष्ट हो जाये, रजोगुणी को क्या, वह तो केवल अपना लोभ पूर्ण करना चाहता है।
ङ) चाहे कोई कष्ट में फंस जाये, उसे क्या, उसे तो वांछित फल पाना है, उसे तो अपनी कामना पूर्ति करनी है, उसे तो दूसरे से केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना है।
च) जब तक किसी के राही स्वार्थ पूरा होने की सम्भावना हो, तब तक उससे मैत्री रखता है, तब तक उसके काम भी करता है, तब तक उससे प्रेम भी करता है; किन्तु जिस पल स्वार्थ सिद्ध होने की बात न रहे, पल में उसे त्याग देता है। फिर मित्र भी बेगाने हो जाते हैं, बन्धु भी बेगाने हो जाते हैं, फिर मातु पितु को भी दूर कर देता है।
नन्हीं! रजोगुण यही करता है। अब तुम ही सोचो, ऐसे गुण का परिणाम क्या हो सकता है? ऐसे लोगों का मन :
1. नित्य भयभीत रहता है।
2. जो मिला, वह बिछुड़ न जाये, इसकी चिन्ता लगी रहती है।
3. और अधिक कैसे मिले, यह चिन्ता खाती है।
4. कर्तव्यहीनता के कारण
– विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
– द्वन्द्व उत्पन्न हो जाते हैं।
– ग्रन्थियाँ बन जाती हैं।
– मानसिक अशान्ति पैदा हो जाती है।
– अपने लोभ को छुपाने के लिये हर पल चेत, अर्ध चेत, तथा अचेत में प्रयत्न करते रहते हैं।
– क्रोध उत्पन्न हो जाता है।
– मोह ग्रसित हो जाते हैं।
– अपराध की भावना चित्त को सताती है।
5. जब इन पर दुःखों के पहाड़ टूटते हैं, ऐसे लोगों का साथ दूसरे भी नहीं देते।
इनके अपने बच्चे इनका मान नहीं करते और इनके अपने ही कुल वाले इनका त्याग कर देते हैं। असल बात तो यह है कि ये लोग वास्तव में अपनी इज्ज़त स्वयं ही नहीं करते, अपनी आंखों से ख़ुद ही गिर जाते हैं।
वे जानें या न जानें, वे मानें या न मानें, किन्तु अपनी इज्ज़त इनसान श्रेष्ठ गुणों से ही कर सकता है। यह दुःख वे स्वयं ही नहीं सह सकते, इस कारण दुःखी हो जाते हैं, किन्तु अपनी दुष्टता का दोष किसी और पर लगाते हैं। अपनी दुःखी अवस्था का दोष भी किसी दूसरे पर मढ़ देते हैं। पर दुःखी तो वे ही हो जाते हैं।