अध्याय १८
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।२१।।
अब भगवान राजसिक ज्ञान के लक्षण कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. परन्तु जो ज्ञान सम्पूर्ण भूतों में,
२. विभिन्न प्रकार के अनेकों भावों को पृथक् पृथक् जानता है,
३. उस ज्ञान को राजस कहते हैं।
तत्त्व विस्तार :
राजस गुण प्रधान लोगों, या कहें राजस गुण को, सबकी आत्मा एक है, या सब इनसान हैं, यह भी समझ नहीं आता, तो भाई ! वे आत्मा की बातें क्या समझेंगे?
राजस ज्ञान :
भाई! रजोगुणी का ज्ञान भेद वर्धक है, जीव को व्यक्तिगत बनाता है। रजोगुण केवल अपनी स्थापति के लिए सब कुछ करता है। वह केवल अपने को ही दिल वाला समझता है, दूसरे को तो वह पत्थर मानता है। केवल अपने को श्रेष्ठ समझता है, दूसरे को नहीं। उसका सारा ज्ञान उसकी अपनी स्थापति के लिए होता है, वह एकत्व क्या समझेगा?
जो सबमें आत्म तत्व नहीं देखेगा, वह भेद दृष्टि ही तो रखेगा।
– वह तो नित्य अपने पराये में भेद देखेगा,
– वह ऊँच नीच, श्रेष्ठ न्यून के अभिमान से बधित रहेगा।
उसका ज्ञान ही भेद बताता है, या कहें पृथक् कर है, व्यक्तिगत कर है। भिन्नता, भेद पर आधारित है। ज्ञान वह पढ़ता तो है, पर यथार्थ अर्थ नहीं समझ पाता। वह अपने मन से इतना तद्रूप हो गया है कि औरों के लिए वह पत्थर बन गया है। उसे अपने तन से अतिशय संग है और वह इसे ही सत् मानता है। मोह अपने तन से संग के कारण होता है और रजोगुणी ज्ञान मोह वर्धक है। तन जड़ है, जड़ से संग के कारण उसमें जड़ता वर्धक गुण उत्पन्न होते हैं। यह रजोगुणी ज्ञान का परिणाम है।
यदि जीव एकत्व देखे तो दैवी गुण उत्पन्न होते हैं।
भिन्नता में तो,
क) आसुरी गुण पलते हैं।
ख) लोभ, कामना का वर्धन होता है।
ग) जीव केवल अपने लिए ही जीता है।
घ) दूसरे को नित्य गिरा कर स्वयं ऊपर उठना चाहता है, यानि सबको नीचे करके अपने आपको स्थापित करना चाहता है।
ङ) दूसरे को कलंक लगा कर भी अपनी कामना पूर्ति चाहेगा।
इस रजोगुणी ज्ञान के आसरे वह,
1. दूसरे को तबाह करने में भी संकोच नहीं करेगा।
2. न्याय कभी नहीं कर पायेगा।
3. कर्तव्य अकर्तव्य को नहीं जान पायेगा।
4. धर्म विमुख हो जायेगा।
अहंकार, स्वाभिमान, दम्भ दर्प इस राजसिक ज्ञान की देन हैं। यह ज्ञान लोभ और कामना बढ़ाता है, व्यक्तिगतता ही सिखाता है। यह महापाप करवाता है और इनसान को असुर बनाता है। यह साधक जनों का भी पतन करवाता है, सबसे वैर उत्पन्न करता है, हरे भरे घरों को चूर कर देता है। यह गुण कर्तव्य विमुख भी करवाता है। इस ज्ञान के आसरे ज्ञान प्रचार भी ग़लत हो जाता है।
यदि मानो कि हर इनसान अपने लिए जीता है, तब ही तो यज्ञ का, तप का, दान का मिटाव हो जाता है। यही कारण है कि सदाचार मिट जाता है, ब्रह्मचर्य मिट जाता है, दैवी सम्पदा का अभाव हो जाता है। यह सब :
क) रजोगुणी ज्ञान के आसरे होता है।
ख) रजोगुणी ज्ञान पर आधारित जीवन के कारण होता है।
ग) रजोगुणी ज्ञान में दृढ़ निष्ठा के कारण होता है।
घ) यही रजोगुणी ज्ञान का रूप है।
भाई! ये लोग यही मानते हैं कि :
1. सब अलग अलग हैं।
2. सबको अपना अपना सम्भालना है।
3. कोई किसी का नहीं होता।
4. बस जितना अधिकार जमा लें, उतना ही अच्छा है।
5. बस जितना दूसरों को दबा लें, उतना ही अच्छा है।
6. जितना दूसरों को लूट लें, दूसरे का छीन लें, उतना ही अच्छा है।
यही राजस ज्ञान है।