अध्याय १८
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: सम्प्रकीर्तित:।।४।।
भगवान कहते हैं,
शब्दार्थ :
१. हे भरत कुल में अति उत्तम अर्जुन!
२. उस त्याग में अब तू मेरा निश्चय सुन!
३. हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन!
४. त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।
तत्त्व विस्तार :
अब भगवान अर्जुन को त्याग का तोल देने लगे हैं, मानो कह रहे हैं, हे अर्जुन! तू अपने त्याग को तोल ले और देख ले यह कैसा है?
भगवान कहते हैं त्याग भी तीन प्रकार का होता है, सात्त्विक, राजसिक, तामसिक।
– जो ज्ञान और प्रकाश के कारण छूट गया, वह सात्त्विक त्याग होगा।
– जो लोभ और कामना के कारण छूट गया, वह राजसिक त्याग है।
– जो अज्ञान और प्रमाद के कारण छूट गया, वह तामसिक त्याग है।
आगे भगवान अपना निश्चय कहते हैं। देख मेरी जान्! पहले यह समझ ले, जो ‘मैं’ छोड़े वह त्याग नहीं होता, क्योंकि ‘मैं’ अपनी स्थापति के अर्थ ही छोड़ेगा। वह त्याग संग अभाव के कारण नहीं होगा, बल्कि वह त्याग संग के कारण होगा। संग अपने तन से होता है, अपने तन से संग हो जाने के पश्चात् मोह उत्पन्न होता है।
संग रहित की वफ़ा अपार होती है। वहाँ वफ़ा जफ़ा को मनाती है। देखना यह है कि क्या कभी जफ़ा भी वफ़ा को मनाती है? बेवफ़ा गर रूठ जाये, तो वह झुकता नहीं है, वह तो नाता ही छोड़ देता है। जो वफ़ादार हो, वह बेवफ़ा को भी मना लेता है। बेवफ़ा, वफ़ादार का भी त्याग कर देता है, वफ़ादार बेवफ़ा का त्याग नहीं करता। इसी में त्याग का राज़ निहित है। सत्त्व में प्रवृत्ति वाले का त्याग वास्तव में त्याग नहीं है। वह तो अपने तन को भी त्यागे जाता है।
त्याग तमोगुणी या रजोगुणी का होता है; वह अपनी ‘मैं’ की स्थापति के लिए त्याग करता है। मैं यानि अहंकार अपनी रुचि पूर्ति के लिए त्याग करता है। तनो संगी अपनी मान्यता सिद्ध करने के लिए त्याग करता है। अब आगे भगवान से सविस्तार त्याग के विभिन्न रूपों के विषय में सुन।