अध्याय १७
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।२७।।
ध्यान से सुन! भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. यज्ञ, तप और दान में स्थिति,
२. (वह) सत् है, ऐसा कहा जाता है
३. और कर्म, जो उसके अर्थ किया जाता है,
४. वह भी सत् है, कहा जाता है।
तत्त्व विस्तार :
सत्
अब भगवान स्पष्ट सत् की स्थिति कहते हैं कि सत् क्या है।
यज्ञ, तप, दान स्थिति :
1. यज्ञ, तप और दान भी सत् की स्थिति है।
2. जहाँ तप और दान नहीं, वहाँ सत् की स्थिति नहीं है।
3. जो भी कर्म यज्ञ, तप और दान के निमित्त किया जाये, वह सत् ही है।
4. जीवन यज्ञमय बनाना ही सत् है।
5. प्रेम का अभ्यास ही तप है और यही सत् है।
6. तन दूसरे व्यक्ति की सेवा में लगाना ही महा दान है, यही सत् है।
यज्ञ, तप, दान अनेकों बार समझा आये हैं। यहाँ तो इतना ही कहना है कि इनके सिवा सत् कुछ भी नहीं।
यज्ञ, तप और दान,
क) साधक का धर्म है।
ख) जीव का कर्तव्य है।
ग) जीवन का आधार है।
घ) सुख का द्वार है।
ङ) यज्ञ, तप, दान में ही अपार आनन्द है।
च) यज्ञ, तप, दान में भगवान का नाम है।
छ) यज्ञ, तप, दान में भगवान का प्रमाण और विधान है।
ज) यज्ञ, तप, दान नाम का परिणाम है।
यज्ञ, तप, दान अर्थ जो भी करो, वह कर्तव्य है। वही सत् है।
– इन्हीं के राही जीव पावन होता है।
– इन्हीं के राही जीव का चित्त शुद्ध होता है।
– यही साधना की सत्यता का प्रमाण है।
– यही साधक की सत्यता का रूप है।
यज्ञ, तप, दान दृष्टि में वास करते हैं, हृदय से उठते हैं। भगवान ने जीव का जीवों से सम्बन्ध सहज ही बनाया है। पारस्परिक सम्बन्ध उज्ज्वल तथा सुखमय रखने के लिए यज्ञ, तप, दानमय दृष्टिकोण अनिवार्य है।
देखो कमला!
क) दान तन राही सेवा है।
ख) तप मन राही दूसरे की हर बात को सहना है।
ग) यज्ञ, अहंकार, दम्भ, दर्प, मोह, मेरापन का त्याग है। यही जीव में सुख और शाश्वत आनन्द का आधार है।