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Chapter 17 Shloka 26
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।२६।।
O Arjuna, the word ‘sat’ is used
for noble and virtuous thoughts;
it is also used for lofty and praiseworthy acts.
Chapter 17 Shloka 26
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।२६।।
O Arjuna, the word ‘sat’ is used for noble and virtuous thoughts; it is also used for lofty and praiseworthy acts.
Little one, a noble deed is described as a ‘sat karma’. ‘Sat’ is an epithet of Brahm Himself. This word ‘sat’ is used:
a) in the expression of noble thoughts;
b) for a virtuous trend of thought impelled by divine qualities;
c) to describe deeds which are a consequence of the flow of divine qualities;
d) to illustrate noble and beneficial deeds;
e) in the life of one who treads the northward path – the path that leads to progression and advancement in spirituality;
f) to denote selfless deeds;
g) by one who wishes only to live in the Truth.
One who lives in ‘sat’ acknowledges “What is, is. This is the reality.” They believe that what the Scriptures say is the undisputed Truth.
1. ‘Sat’ – this word is used as a form of practice of the Truth.
2. In order to live a life where Truth is predominant, such people keep that Truth constantly before them in conscious memory.
3. Just as the individual invokes the Lord as a witness by calling out His name, so also he seeks abidance in the Truth by repeating the term ‘sat’.
4. Such a one never forgets ‘sat’ even whilst engaging in any work whatsoever.
5. In the repetition of ‘sat’ lies the innate invocation of that Truth.
This can also be understood thus – the word ‘Om’ is chanted by:
a) the Brahmins;
b) by those who know Brahm and who abide in the state of Brahm;
c) the perfect souls.
The word ‘sat’ is uttered by a spiritual practicant:
a) when he practises the renunciation of the fruits of action;
b) when he practises subjugation to the Lord;
c) in order to augment faith and trust;
d) to aid him in the surrender of his body, mind and intellect to the Supreme.
1. The word ‘sat’ is spoken in order to invoke noble thought processes.
2. The word ‘sat’ is an aid in noble actions.
3. The word ‘sat’ is an aid in the discernment between truth and falsehood.
4. The word ‘sat’ aids one in one’s perception of reality.
5. The word ‘sat’ is an aid in treading the noble path towards spiritual greatness.
Repeating the term ‘sat’ incessantly, the spiritual aspirant searches for the Truth and practices the Truth inasmuch as he is acquainted with it.
1. When the thought process of sat comes to the forefront, virtue will increase.
2. When the thought of sat predominates, divine qualities are multiplied.
3. When the thought of sat predominates, man becomes diligent in the fulfilment of duty.
4. Then he will perform praiseworthy acts.
5. Then noble deeds will emerge.
Understand it in this manner:
‘Sat’ inspires the understanding “What is, is.”
‘Tat’ inspires the understanding “What is, belongs to Thee.”
‘Om’ inspires the thought, “Thou art this entirety!”
अध्याय १७
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।२६।।
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! सद्भाव और साधु भाव में,
२. ‘सत्’, इस नाम का प्रयोग किया जाता है,
३. तथा उत्तम कर्म में भी ‘सत्’,
४. शब्द का प्रयोग किया जाता है।
तत्त्व विस्तार :
नन्हीं! श्रेष्ठ कर्म को ही सत् कर्म कहते हैं। ‘सत्’ ही ब्रह्म का नाम है। यह सत् का शब्द :
क) सद्भाव प्रकट करते हुए प्रयोग करते हैं।
ख) दैवी सम्पदा पूर्ण साधुभाव प्रयोग करते हैं।
ग) दैवी सम्पदा बहाव के परिणाम रूप काज में इस्तेमाल करते हैं।
घ) ‘सत्’ श्रेयस्कर कर्म में इस्तेमाल करते हैं।
ङ) ‘सत्’ उत्तरायण पथ पथिक के जीवन में इस्तेमाल करते हैं।
च) ‘सत्’ निष्काम कर्म में इस्तेमाल करते हैं।
छ) जब केवल ‘सत्’ में जीना चाहें, तब सत् कहते हैं।
ज) ‘बस जो है वही है, यही हक़ीक़त है,’ सत् वाले इसी भाव में रहते हैं।
झ) जो शास्त्र में कहा है, वही हक़ीक़त है, सत् वाले यह कहते हैं।
देखो भाई!
1. ‘सत्’ शब्द का प्रयोग सत् अभ्यास के कारण होता है।
2. सत् प्रधान जीवन बसर करने के लिये सत्य को नित्य याद रखते हैं, तब इस शब्द को कहते हैं, जो मानो सत् की याद दिलाता है।
3. ज्यों भगवान का नाम लेकर जीव भगवान का साक्षित्व चाहता है; त्यों सत् का नाम लेकर जीव सत् में टिकना चाहता है।
4. किसी काज कर्म को करते समय भी उन्हें सत् की विस्मृति नहीं होती।
5. नित्य ‘सत्’ कह कर वह सत् के मानो निहित अर्थ का आह्वान करते हैं।
समझना है तो तुम ऐसे समझ लो कि :
ओम् :
1. ब्राह्मण कहते हैं।
2. ब्रह्म वित् तथा ब्रह्म निष्ठ कहते हैं।
3. सिद्ध गण कहते हैं।
सत् :
साधक कहते हैं,
1. जब कर्म फल त्याग का अभ्यास करते हैं,
2. जब भागवत् अर्पित होने का अभ्यास करते हैं।
3. यह श्रद्धा और विश्वास वर्धक है।
4. यह तन, मन, बुद्धि को अर्पण करने में सहायक हैं।
सत् :
क) सद्भावना उत्पत्ति अभ्यास के समय सत् कहते हैं।
ख) सत् सद्भावना कर्म अभ्यास में सहायक है।
ग) सत् असत् विवेक में सत् सहायक है।
घ) हक़ीक़त देखने में सत् सहायक है।
ङ) श्रेय पथ के अनुसरण में सत् सहायक है।
बार बार सत् कह कर साधक सत् की तलाश करता है, सत् का अभ्यास करता है।
1. जब सत्भाव आयेगा, तब साधुता का वर्धन होगा।
2. जब सत्भाव आयेगा, तब दैवी गुण का वर्धन होगा।
3. जब सत्भाव आयेगा, तब कर्तव्य परायणता उत्पन्न होगी।
4. तत्पश्चात् ही तो प्रशंसनीय कर्म होंगे।
5. तत्पश्चात् ही तो उत्तम कर्म होंगे।
इसे समझना है तो यूँ समझ लो :
सत् से, ‘जो है वह है,’ ऐसा भाव उत्पन्न होता है।
तत् से ‘जो है तुम्हारा है,’ ऐसा भाव उत्पन्न होता है।
ओम् से ‘पूर्ण तुम ही हो,’ ऐसा भाव उत्पन्न होता है।