अध्याय १७
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरै:।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।१७।।
भगवान कहते हैं, देख अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. फल की चाहना न रखने वाले,
२. युक्त पुरुषों द्वारा (किया गया),
३. परम श्रद्धा से तृप्त हुआ,
४. यही तीन प्रकार का तप,
सात्त्विक तप कहलाता है।
तत्त्व विस्तार :
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! तुझे अभी जो कायिक तप, वाणी का तप और मन का तप समझा कर आये हैं, वह सात्त्विक तप है।
सात्त्विक तप :
यह तप :
1. निष्काम भावी पुरुष करते हैं।
2. निष्काम उपासक गण करते हैं।
3. निष्काम ज्ञानपूर्ण करते हैं।
4. वे पुरुष परम में दृढ़ निष्ठा वाले होते हैं।
5. वे परम परायण होते हैं।
6. वे परम में श्रद्धा रखने वाले होते हैं।
7. वे स्वरूप की ओर प्रवृत्ति वाले होते हैं।
8. वे जीवन यज्ञमय बनाये हुए होते हैं।
9. वे कर्तव्य रूप परम धर्म अपनाये हुए होते हैं।
10. तन की परवाह उनको नहीं होती।
11. तन की परवाह तो दूर रही, उन्हें तो मन की भी परवाह नहीं होती।
12. वे तो भगवान से प्रीत लगाये होते हैं।
13. वे तो नाम को पाये होते हैं। अपना नाम भूलकर ये राम को अपनाये होते हैं।
14. ऐसे ही लोग हैं जो राम को भी सप्राण करते हैं।
15. राम राज्य इनके हृदय में होता हैं।
शनै: शनै:,
क) योग सफल इनका ही होता है।
ख) समत्व स्थित ये हो सकते हैं।
ग) सत् धर्म का ये प्रमाण बनते हैं।
घ) फिर राम आप ही इनमें मानो वास करते हैं।
ये सम्पूर्ण तप करने वाले, कर्म फल को न चाहने वाले योगी पुरुष, परम में श्रद्धा से तृप्त हैं, ऐसा कहते हैं।