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Chapter 16 Shloka 17
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।१७।।
Those arrogant beings who thus consider themselves
to be superior and who are intoxicated with wealth
and honour, they worship the Lord in hypocrisy
– through nominal sacrifices and offerings,
and contrary to scriptural ordinances.
Chapter 16 Shloka 17
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।१७।।
The Lord says:
Those arrogant beings who thus consider themselves to be superior and who are intoxicated with wealth and honour, they worship the Lord in hypocrisy – through nominal sacrifices and offerings, and contrary to scriptural ordinances.
Describing men of the demonic disposition, the Lord says that:
a) Such people have a high opinion of themselves.
b) They consider themselves to be the most superior.
c) They consider themselves to be on a higher plane than the whole world.
d) They consider themselves to be more capable than the whole world.
e) They are devoid of positive attributes yet they are arrogant with pride.
f) They are intoxicated with the pride of wealth, which ultimately becomes the cause of their destruction.
g) Thus intoxicated with the wine of wealth and renown, they do not even consider others to be human.
h) They regard others with disdain.
i) They insult others.
j) They loathe others.
k) Their mind is full of hatred and avarice.
l) Self praise comes naturally to them.
m) Pride of self is their natural attribute.
– Such people are extremely arrogant.
– They are incorrigible and shameless.
– They do not contain even an iota of humility.
– They cannot understand love, compassion and sympathy.
– Forgiveness is a far cry – they in fact continually cast aspersions even at saints and sages.
They are so proud of their wealth and repute that they:
a) forget humane qualities;
b) consider themselves to be the most superior;
c) weigh relationships with wealth;
d) swell with arrogance even before their parents;
e) do not consider the impoverished to be human beings.
Thoroughly inebriated with the intoxicants of wealth and fame, such people offer numerous sacrifices:
a) only for show;
b) only for self-establishment;
c) only for augmenting their pride;
d) only to gain respect and acclaim;
e) and thus they deceive themselves and others.
Their sacrificial offerings are only in name. They do not perform sacrifice in the true sense nor with the correct method. They meet even spiritual beings with arrogance.
What can one do when the intoxication of wealth motivates even the aspirant of virtue to perform such unholy consecrations; when, drunk with wealth, even men of knowledge and learning delude the world? Neither in their yagya nor in their method of performing the rites is there any faith. They have faith neither in Truth nor in love.
1. They are hard-working, but devoid of faith.
2. They take the Lord’s Name, but without faith.
3. They gift great donations to charities, but without faith.
They are verily demons full of evil tendencies.
अध्याय १६
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।१७।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. अपने आपको बड़ा मानने वाले,
२. अकड़ वाले,
३. धन, मान, मद से युक्त लोग,
४. दम्भ से अविधि पूर्वक,
५. नाम मात्र के यज्ञों द्वारा यजन करते हैं।
तत्त्व विस्तार :
भगवान आसुरी वृत्ति वाले लोगों की बात बताते हुए आगे कहते हैं कि ये लोग अपने आपको :
क) बहुत बड़ा मानते हैं।
ख) बहुत श्रेष्ठ मानते हैं।
ग) बाक़ी जहान से बहुत ऊँचा मानते हैं।
घ) बाक़ी जहान से बहुत लायक मानते हैं।
ङ) वे गुणहीन होते हुए भी, बहुत अकड़ वाले होते हैं।
च) धन का गुमान ही इनके नाश का कारण बन जाता है।
छ) धन तथा मान के मद से चूर हुए, औरों को यह इन्सान ही नहीं समझते।
ज) ये दूसरों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं।
झ) ये दूसरों का तिरस्कार करते हैं।
ञ) ये दूसरों से घृणा करते हैं।
ट) इनके मन में द्वेष भरा होता है।
ठ) इनके मन में लोभ भरा होता है।
ड) आत्म सराहना इनका सहज गुण है।
ढ) आत्म अभिमान इनका सहज गुण है।
– ये लोग बहुत अकड़ वाले होते हैं।
– ये गुस्ताख़ और निर्लज्ज होते हैं।
– विनम्रता का इनके पास नामोनिशान नहीं होता।
– प्रेम, सहानुभूति, करुणा को ये समझते ही नहीं हैं।
– क्षमा करना तो दूर रहा, ये तो स्वयं ही साधुओं पर झूठे दोष लगाते हैं।
धन और मान का इन्हें इतना गुमान होता है कि ये,
1. इन्सानियत ही भूल जाते हैं।
2. अपने को ही सर्वोत्तम मानते हैं।
3. नाते रिश्ते, धन से तोलते हैं।
4. माता पिता से भी ऐंठते हैं।
5. निर्धन को इन्सान ही नहीं समझते।
धन और मान के मद से चूर हुए ये लोग अनेक बार यज्ञ भी करते हैं, परन्तु :
क) केवल दिखाने के लिये ही करते हैं।
ख) अपनी स्थापना के लिये ही करते हैं।
ग) गुमान ही बढ़ाने के लिये करते हैं।
घ) मान ही बढ़ाने के लिये करते हैं।
ङ) अपने आप को भी ये धोखा देते हैं।
च) यज्ञ करके ये औरों को भी धोखा देते हैं।
ये नाम मात्र ही यज्ञ करते हैं; विधिवत् यज्ञ नहीं करते। यह साधुओं को भी मिलते हैं तो दम्भ सहित मिलते हैं।
भाई! क्या करें, जब मान की मद से पूर्ण होकर साधु भी असाधुता पूर्ण यज्ञ करें, धन के मद से पूर्ण होकर ज्ञानवान भी जग को भरमायें! न इनके यज्ञ में श्रद्धा होती है न विधि में ही; न सत्य में श्रद्धा होती है, न प्रेम में ही।
भाई!
– ये लोग काम तो करते हैं, पर श्रद्धा रहित।
– ये लोग भगवान का नाम भी लेते हैं, पर श्रद्धा रहित।
– ये जहान में दान भी देते हैं, पर श्रद्धा रहित।
ये असुर लोग हैं, आसुरी वृत्ति पूर्ण लोग हैं।