अध्याय १५
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।१९।।
अब भगवान उसकी महिमा गान करते हैं, जो भगवान को पुरुषोत्तम रूप से जानते हैं। भगवान कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. अर्जुन! जो ज्ञानी पुरुष इस प्रकार,
२. तत्त्व से मेरे को पुरुषोत्तम जानता है,
३. वह सर्वज्ञ पुरुष,
४. सर्वभाव से मेरे को भजता है।
तत्त्व विस्तार :
भगवान कहने लगे, ‘जो मोह रहित हुआ मुझे इस प्रकार पुरुषोत्तम जानता है, वह पूर्ण रूप से, जो कुछ भी जानने योग्य है, उस सबको जानता है और वह निरन्तर मुझे ही भजता है।’
नन्हूं! ठीक ही तो है! जो पूर्ण रूप से अखण्ड, अद्वितीय आत्म तत्त्व को जानता है, वह व्यावहारिक स्तर पर भागवद् अखण्डता को मानेगा ही और उसको सर्वव्यापक, अखिल रूप जान कर, सबको आत्म स्वरूप ही मानेगा। ऐसा व्यक्ति जीवन में जिस से, जो भी करेगा, उसे आत्म तत्त्व जान कर ही करेगा। ऐसे सर्वज्ञ व्यक्ति का निजी अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा। वह :
क) सब भूतों में स्थित आत्म तत्त्व में नित्य ब्रह्म के दर्शन पायेगा।
ख) अखिल नाम रूप, भगवान को ही मानेगा।
ग) जीवन में भागवद् गुणों का ही इस्तेमाल करेगा।
घ) जीवन में, जहाँ भी भागवद् गुण के दर्शन पायेगा, उनकी चाकरी करेगा।
ङ) जीवन में भगवान के कथन का अक्षरश: अनुसरण करेगा।
नन्हीं जाने जान्! वास्तव में वह स्वयं तनत्व भाव को त्याग चुका होगा। वह स्वयं परम के योग में स्थित हो चुका होगा।
नन्हूं! अपने आपको बिन जाने, भगवान के इस तत्त्व को अनुभव सहित जानना कठिन है और जिसने इसको जान लिया, वह स्वयं सर्वज्ञ हो ही जायेगा।