अध्याय १५
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।१४।।
अब भगवान आगे अपने तेज के विभाजन को समझाते हुए कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. मैं (ही) सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ,
२. वैश्वानर होकर,
३. प्राण और अपान से युक्त होकर,
४. चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।
तत्त्व विस्तार :
वैश्वानर :
नन्हूं! प्रथम वैश्वानर को समझ ले।
1. वैश्वानर जठर अग्नि को कहते हैं।
2. वैश्वानर पाचन शक्ति को कहते हैं।
3. वैश्वानर के कारण शरीर में गर्मी रहती है।
4. वैश्वानर के कारण शरीर ज़िन्दा रहते हैं।
5. वैश्वानर की ऊष्णता ही पेट में अन्न को पकाती है।
भगवान कहते हैं, “मैं ही प्राण और अपान से युक्त होकर, जठर अग्नि रूप वैश्वानर, भूतों की पाचन शक्ति बनता हूँ।”
भगवान ने यह भी कहा, “चार प्रकार के अन्न को मैं पचाता हूँ।”
चार प्रकार के अन्न :
यानि,
क) चबा कर खाने वाले अन्न (रोटी इत्यादि),
ख) निगले जाने वाले अन्न (दूध इत्यादि ),
ग) चाट कर खाने वाले अन्न (चटनी, शहद इत्यादि),
घ) चूस कर खाने वाले अन्न (गन्ना इत्यादि),
को मैं पचाता हूँ।
भगवान ही इन सबको पचाते हैं और विभिन्न अन्न रूप औषधियों को पृथक् पृथक् करके उचित मात्रा में विभिन्न अंगों को पहुंचाते हैं। इससे विभिन्न अंग पुष्टित होते हैं। जो व्यर्थ अन्न होता है, भगवान ही उसे तन से बाहर निकाल देते हैं।
भगवान ने यहाँ कहा कि प्राण और अपान वायु से युक्त होकर वह अन्न को पचाते हैं। नन्हीं! प्राण आन्तर में ऑक्सीजन ले जाते हैं और अपान आन्तर से कार्बनडॉक्साइड निकालते हैं। ऑक्सीजन से ही शरीर के सब आन्तरिक अंग अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं। कार्बनडॉक्साइड द्वारा शरीर से मानो हानिकारक वायु बाहर निकल जाती है।
भगवान कहते हैं, कि यह सब वह आप हैं और इसकी राह से जीव जो अन्न खाता है और पचाता है, उससे ही जीव जीवित रहता है।
यानि, भगवान कह रहे हैं कि जीव का पालन पोषण वह आप ही करते हैं।