अध्याय १५
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।१३।।
फिर भगवान कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. पृथ्वी में प्रवेश करके,
२. मैं अपनी शक्ति से,
३. सब भूतों को धारण करता हुआ।
४. रसात्मक सोम होकर,
५. सम्पूर्ण औषधियों को पुष्टित करता हूँ।
तत्त्व विस्तार :
भगवान कहते हैं बीज उत्पत्ति कर शक्ति आत्म तत्त्व ही है।
अब भगवान कहते हैं कि,
क) मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण भूतों को धारण करता हूँ;
ख) यानि, सम्पूर्ण भूत योनियों में जो शक्ति है, वह मेरी ही है।
ग) जिसमें भी बीज उत्पत्ति की शक्ति है, वह मेरी ही है।
और भगवान कहते हैं कि, “मैं रसमय सोम होकर, सृष्टि की सम्पूर्ण औषधियों को पुष्टित करता हूँ।”
‘सोम’ चन्द्रमा को कहते हैं। चन्द्रमा का स्वरूप रसमय होता है। चन्द्रमा के काल में पड़ने वाली ओस से सम्पूर्ण औषधियाँ पुष्टि पाती हैं। उस चन्द्रमा से रस पाकर वनस्पति स्वादिष्ट तथा रसयुक्त बनती है। ‘सोम’ यज्ञ में काम आने वाले रस को भी कहते हैं।
सोम = सु+मन, यानि :
क) सुन्दर मन को सोम कहते हैं।
ख) श्रेष्ठता वर्धक मन को सोम कहते हैं।
ग) सर्वोत्तम मन को सोम कहते हैं।
घ) जो रस पुष्टि दे, उसे सोम रस कहते हैं।
यहाँ भगवान कहते हैं, वह रस, जो सम्पूर्ण औषधि का पालन करता है, वह भगवान स्वयं ही हैं।
औषधि :
नन्हीं! औषधि सम्पूर्ण वनस्पति को कहते हैं।
औषधि वह है,
1. जो जीव के तन को स्वस्थ बनाये।
2. जो जीव के तन को पुष्टित रखे।
3. जो जीव के तन का बल और शक्ति बनाये रखे।
4. जो जीव के हर अंग को पुष्टित रखे।
भगवान कहते हैं कि देख अर्जुन! यह सब मेरे ही अतुल्य तेज का प्रताप है, जिसकी राह से संसार की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि होती है।