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Chapter 15 Shloka 8
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।८।।
Just as fragrance is carried by the breeze from
one place to another, similarly at the time of death,
the godhead residing in the jivatma carries
the essence of the mind and the senses
from one body to another.
Chapter 15 Shloka 8
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।८।।
The Lord says to Arjuna:
Just as fragrance is carried by the breeze from one place to another, similarly at the time of death, the godhead residing in the jivatma carries the essence of the mind and the senses from one body to another.
Why is the jivatma defined here as Ishwar (ईश्वर)?
1. In order to reveal the jivatma’s essential non-difference with the Supreme.
2. In order to reveal the ancient nature of the component of the Supreme that abides in the jivatma.
3. To acquaint us with the indestructible nature of the Supreme.
4. In order to lead the mortal towards his very essence.
5. In order to acquaint him with his real Self.
6. To reassure him that the Lord never forsakes him.
7. To make clear to the mortal being that his energies are of divine origin.
The fragrance emitted by the intermingling of the mind and the sense organs creates the seed of the jivatma. Look! The body, the mind, the intellect and the sense organs:
a) are the Lord’s creation;
b) contain the energy of the Supreme;
c) are filled with the consciousness gifted by God.
However:
1. The mind, the intellect and the ego individualised themselves.
2. They filled themselves with ego and became attached to their body self.
3. They developed attachment with their actions.
4. They became attached to their attributes.
5. They began to consider themselves to be inferior or superior.
6. They began to experience pride at times and anxiety at other times.
7. They began to desire some things and reject others.
The consequences of attachment
a) All this was meaningless.
b) All this transpired because of the veil of ignorance that shrouded the Truth.
It is attachment that causes moha. It is attachment that gives rise to the consciousness of individual existence; and the body, which is the divine manifestation of Brahm, is reduced to an image of inanimate clay.
However, witness the nature of Brahm. Perceive His infinite compassion! Those tasks of the body, mind and intellect that were left unfulfilled in this birth, are manifested again for us in our next life. Just as we have received the fruits of our desires of previous births in this life, so also in our next life we shall receive the fruits of our present desires and deeds. Our attachment, moha, ego, attractions and repulsion, mental aberrations, positive and negative thought processes, good and bad attitudes – all these combined constitute the fragrance of our lives.
It is said that that component of the Supreme, the jivatma, carries these very seeds and this very fragrance to create the blue print of future lives.
Little one, the Atma carries this ‘fragrance’ constituting the seeds of actions just like the breeze carries the fragrance of the atmosphere from one place to another. Prakriti then creates a new body based on those seeds.
a) This entire process takes place with the Atma as the witness.
b) That is, at the end of life’s journey, the seeds of action that remain with the jivatma occupy a new body with the help of the Atma.
c) However little one, the Atma does not even touch these seeds, It merely hands over those seeds (which constitute Prakriti).
Little one, understand the connotation of ‘Ishwar’ once more.
1. Ishwar is the Master.
2. Ishwar connotes one who is full of power and energy.
3. Ishwar connotes proficiency and capability.
4. Ishwar is one who accepts all as His own.
5. Ishwar is one who rules.
6. Ishwar is one who governs.
7. Ishwar is one who commands.
8. Ishwar is one who establishes his right.
In this context, ‘Ishwar’ is the epithet given to the jivatma who establishes a master’s rights over the seeds of action. This same Ishwar has the inherent power to govern the latencies contained in the seeds of action. That jivatma thus fabricates a new body and places therein the fragrance of the sap of sense enjoyments.
This ‘sap’ is created by the union of the mind with the organs of sense perception. It is the fragrance of this sap which the ‘Ishwar’ draws to infuse into a new body.
अध्याय १५
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।८।।
भगवान कहते हैं, अर्जुन ध्यान से समझ!
शब्दार्थ :
१.जैसे वायु स्थानों से गन्ध ले जाता है,
२.वैसे ही ईश्वर (जीवात्मा) भी, जिस देह को छोड़ता है,
३.उससे इन इन्द्रियन् रस को पकड़ कर,
४.जिस देह को पुन: रचता है,
५.उसमें ले जाता है।
तत्त्व विस्तार :
जीवात्मा ईश्वर कैसे?
यहाँ जीवात्मा को ईश्वर कहा:
क) परम से अभेदता दर्शाने के लिये कहा।
ख) परम अंश की सनातनता बताने के लिये कहा।
ग) परम की अखण्डता सुझाते हुए कहा।
घ) जीव को उसके स्वरूप की ओर ले जाने के लिये कहा।
ङ) जीव को उसकी वास्तविकता दर्शाने के लिये कहा।
च) जीव को भगवान कभी नहीं छोड़ते, वह इस बात से समझ सके, इसलिये कहा।
छ) जीव में शक्ति परम की है, वह इस बात को समझ सके, इसलिये कहा।
मन इन्द्रिय समूह की गन्ध ही बीज बनती है, यह समझ ले। देख न! तन, मन, बुद्धि और इन्द्रिय:
1. रचना तो परम की है,
2. इनमें शक्ति तो परम अंश की है,
3. इनमें चेतना तो परम ने ही दी है।
परन्तु,
क) मन, बुद्धि और अहं ने अपने आपको व्यक्तिगत कर लिया है।
ख) उन्होंने अपने में अहंकार भर लिया है और अपने तन से संग कर लिया है।
ग) उन्होंने कर्मों से भी संग कर लिया है।
घ) उन्होंने गुणों से भी संग कर लिया है।
ङ) वे न्यून श्रेष्ठ निज को मानने लगे हैं।
च) वे कहीं इतराने, कहीं घबराने लगे हैं।
छ) वे कुछ चाहने लगे, कुछ ठुकराने लगे हैं।
संग का परिणाम :
यह सब ही,
क) निरर्थक था,
ख) आवरण के कारण हुआ,
ग) अज्ञान के कारण हुआ।
यह संग ही मोह है। इसके कारण ही जीवत्व भाव उत्पन्न हुआ और ब्रह्म की विभूति यह तन, एक जड़ माटी बुत बन कर रह गया।
उस ब्रह्म का स्वभाव देख! उस ब्रह्म की करुणा देख! जो काज इस जन्म में मन, बुद्धि के अधूरे रह गये, जो चाहना अतृप्त रह गई, वह पुन: रूप धर आयेगी आपके लिये। इस जीवन में आपके पूर्व जीवन की चाहना का फल मिला। अगले जीवन में आधुनिक चाहना का फल मिल जायेगा। आपका संग, मोह, अहंकार, राग द्वेष, मनोविकार, संकल्प विकल्प, सद्भाव दुर्भाव, यही तो आपके जीवन की गन्ध है।
कहते हैं, परमात्म अंश जीवात्मा इसी गन्ध को लेकर और इन्हीं बीजों को लेकर पुनः नव तन का निर्माण कर देता है।
बच्चू जान्! आत्मा, या कहो जीवात्म तत्त्व, गन्ध रूप में कर्म फल बीजों को ऐसे ले जाता है, जैसे वायु गन्ध को ले जाती है और फिर उन बीजों के आसरे प्रकृति नव तन रचती है।
क) यह सब आत्मा के साक्षित्व में होता है।
ख) यानि, जीवन यात्रा के अन्त में जो कर्म में फल बीज रूप में शेष रह जाता है, वह आत्मा के आसरे नव तन ग्रहण करता है।
ग) किन्तु नन्हूं! आत्मा मानो इन बीजों को छूता तक नहीं है। वह तो उन बीजों को, मानो प्रकृति को ज्यों का त्यों दे देता है।
नन्हीं! ईश्वर का अर्थ पुन: समझ ले!
1. ईश्वर मालिक को कहते हैं।
2. ईश्वर शक्ति सम्पन्न को कहते हैं।
3. ईश्वर योग्य तथा समर्थ को कहते हैं।
4. ईश्वर अपनाने वाले को कहते हैं।
5. ईश्वर राज्य करने वाले को कहते हैं।
6. ईश्वर शासन करने वाले को कहते हैं।
7. ईश्वर आदेश देने वाले को कहते हैं।
8. ईश्वर अधिकार में लेने वाले को कहते हैं।
इस नाते, यहाँ कर्म संस्कार को अधिकार में लेने वाले मालिक जीवात्मा को ‘ईश्वर’ कहा है।
इसी ईश्वर में संस्कारों पर राज्य करने की तथा उनका पुनर्निर्माण करने की शक्ति निहित होती है।
यह जीवात्मा मानो नव तन निर्माण करके उसमें इन्द्रिय रस गन्ध को भर देता है।
ऐसे ही देख नन्हूं! मन तथा इन्द्रिय संयोग से यह रस बनता है और इस गन्ध को ईश्वर खेंच लेता है।