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Chapter 14 Shloka 22
श्री भगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।२२।।
The Lord says:
Arjuna, he who does not repel luminescence,
engagement in activity or moha
when they are present and who does not
desire these in their absence, is a gunatit.
Chapter 14 Shloka 22
श्री भगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।२२।।
The Lord says:
Arjuna, he who does not repel luminescence, engagement in activity or moha when they are present and who does not desire these in their absence, is a gunatit.
Defining the characteristics of the gunatit, the Lord says that he who does not abhor the luminescence of sattva, the activity innate in rajas or the moha derived of tamas, and who does not desire these in their absence, is a gunatit.
1. Little one, the gunatit is not attached to knowledge or the luminescence it emanates.
2. He is not attached to the qualities of divinity.
3. He is not attached to greatness.
4. He is not even attached to the attribute of sattva.
5. He does not desire the attribute of sattva.
6. Nor is he averse to that attribute.
7. He is not excessively attached to activity (the product of rajas), nor does he abhor it.
8. The gunatit does not seek to escape from the fruits of engagement in action.
9. The gunatit neither wishes to adopt the attribute of rajas, nor does he seek to renounce it.
10. He is not influenced by moha, the product of tamas, nor is he excessively averse to it.
11. He is not influenced by moha, nor does he desire its absence.
Little one, the gunatit moulds himself in accordance with the prevailing circumstance. He mirrors the individual who stands before him. He maintains his equanimity in all situations. He maintains an impartial attitude towards both engagement in action and abstinence from it – pravritti and nivritti.
The Yogi who possesses knowledge:
a) renounces attachment with the body;
b) knows his attributes to be inanimate;
c) remains indifferent to his qualities;
d) is attracted by his Atma Self;
e) pays no heed to any qualities or their influence.
When nothing is in one’s control, why blame another or fight another? Qualities flow freely and spontaneously from the body of such a one but he remains impartial towards them. He is neither attached to activity nor does he desire abstinence from it.
Nivritti and Pravritti
Little Abha, the Yogi, the pandit, the man of knowledge and the sthit pragya are free from attachment to both nivritti and pravritti.
Pravritti (प्रवृत्ति)
Pravritti connotes forging ahead, arising, manifesting itself, initiating, utilising, interaction, engaging in work, activity, normal worldly activity, trade, to flow freely.
The tendency to engage in activity is generally related with worldliness and selfishness. It is said that the worldly person is prone to tread the path of activity. Many believe that this path leads towards Karma Yoga or union with the divine through action.
Nivritti (निवृत्ति)
To return, to wane, to be lost in meditation, not to initiate any activity, to renounce interaction, to be devoid of activity, to relinquish all work, to shun worldly existence, to desist from trade, to distance oneself from worldly life, to refrain from trade, destruction.
Nivritti is generally connected with sanyas or renunciation, detachment, and bliss. This path is considered to lead to knowledge.
Little Abha, the gunatit is ever unaffected by both nivritti and pravritti. He does what the situation demands of him at any given time.
अध्याय १४
श्री भगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।२२।।
भगवान गुणातीत के लक्षण बताते हुए कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. अर्जुन! प्रकाश और प्रवृत्ति, और मोह के भी होने पर,
२. जो द्वेष नहीं करता है
३. और उनके निवृत्त होने पर (उनकी) आकांक्षा नहीं करता है,
४. (वह गुणातीत है)।
तत्त्व विस्तार :
गुणातीत के लक्षण बताते हुए भगवान कहने लगे कि सतोगुण का प्रकाश, रजोगुण का कार्य रूप प्रवृत्ति और तमोगुण का मोह, जब अपने अपने गुण में प्रवृत्त होते हैं तो गुणातीत को उनकी प्रवृत्ति से द्वेष नहीं होता; न ही वह इनसे निवृत्त होने की इच्छा करता है।
क) नन्हूं! गुणातीत को ज्ञान तथा प्रकाश से संग नहीं होता।
ख) गुणातीत को दैवी सम्पदा से संग नहीं होता।
ग) गुणातीत को श्रेष्ठता से संग नहीं होता।
घ) गुणातीत को सतोगुण से भी संग नहीं होता।
ङ) गुणातीत को सतोगुण की चाहना भी नहीं होती।
च) गुणातीत को सतोगुण से कोई द्वेष भी नहीं होता।
छ) गुणातीत को प्रवृत्ति (जो रजोगुण का कार्य है) से भी संग नहीं होता और न ही उससे द्वेष होता है।
ज) गुणातीत को प्रवृत्ति के कर्म रूप परिणाम से भी निवृत्ति की चाह नहीं होती।
झ) गुणातीत न रजोगुण को अपनाना चाहता है और न ही उसे त्यागना चाहता है।
ञ) गुणातीत तमोगुण के कार्य रूप मोह से भी न संग करता है और न ही द्वेष करता है।
ट) गुणातीत न ही तमोगुण के कार्य रूप मोह से प्रभावित होता है और न ही उससे निवृत्ति चाहता है।
नन्हूं! जैसी परिस्थिति आ जाये, वह वैसा ही बन जाता है। जैसा जीव उसके सामने आ जाये, वह वैसा ही बन जाता है। वह तो हर परिस्थिति में समचित्त रहता है। निवृत्ति या प्रवृत्ति, दोनों के प्रति वह समभाव रखता है। ज्ञानवान् योगी तो,
1. अपने तन से ही संग छोड़ देते हैं।
2. अपने गुणों को जड़ जानते हैं।
3. अपने गुणों के प्रति उदासीन होते हैं।
4. अपनी आत्मा से मानो आकर्षित होते हैं।
5. गुणों की और गुण प्रभाव की कोई परवाह नहीं करते।
जब किसी के हाथ में ही कुछ नहीं तो किसी से क्या लड़ना? उनका तन स्वत: जो भी गुण बहाता है, वे उसे मानो निरपेक्ष भाव से बहने देते हैं। वे न प्रवृत्ति से संग करते हैं और न निवृत्ति की ही चाहना करते हैं।
निवृत्ति और प्रवृत्ति :
नन्हीं आभा! पहले निवृत्ति तथा प्रवृत्ति को समझ ले। ज्ञानवान्, पण्डित, योगी, या स्थित प्रज्ञ, इन दोनों से संग नहीं करते।
प्रवृत्ति :
प्रवृत्ति का अर्थ है आगे बढ़ना, उदय होना, प्रकट करना, आरम्भ करना, प्रयोग करना, आचार व्यवहार काम में लगाना, क्रियाशीलता, सांसारिक सहज जीवन, व्यापार, प्रवाह की तरह बह जाना।
निवृत्ति :
निवृत्ति का अर्थ है लौट जाना, अस्त हो जाना, अंतर्ध्यान हो जाना, कुछ भी आरम्भ न करना, लोगों से व्यवहार छोड़ देना, निष्क्रियता, काम करना छोड़ देना, सांसारिक जीवन से दूर रहना, व्यापार न करना, क्षय।
निवृत्ति को अधिकांश संन्यास, त्याग, उदासीनता, आनन्द इत्यादि से सम्बन्धित मानते हैं और कहते हैं कि यह ज्ञान की ओर ले जाता है।
आभा मेरी जान्! गुणातीत तो नित्य प्रवृत्ति या निवृत्ति से अप्रभावित रहते हैं। जैसी भी परिस्थिति आई, वे वैसा ही कर लेते हैं।