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Chapter 14 Shloka 12
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।
Arjuna! With the preponderance of rajas,
the proclivity towards greed, activity, restlessness,
constantly undertaking new works,
the desire for enjoyment of sense objects
– all these are engendered.
Chapter 14 Shloka 12
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।
Now Bhagwan speaks of the attribute of rajas and describes the signs that point towards its increase.
Arjuna! With the preponderance of rajas, the proclivity towards greed, activity, restlessness, constantly undertaking new works, the desire for enjoyment of sense objects – all these are engendered.
The attribute of rajas increases greed and discontentment. One in whom this attribute is predominant desires wealth:
a) not only for today but for an entire lifetime!
b) also for the lifetime of his children!
c) also for the lifetime of his grandchildren!
d) enough to buy all that he desires.
The desire of such a one is all encompassing; every object that catches his interest becomes a part of all that he desires to acquire.
Little one, wealth gains its value from the intensity of one’s desire for it. And the one who possesses the attribute of rajas desires wealth in plenty, for that wealth will be instrumental in:
a) purchasing respect and recognition;
b) purchasing the loyalty of others;
c) purchasing eminence in the world;
d) purchasing knowledge;
e) purchasing people;
f) purchasing love;
g) purchasing even the Lord;
h) purchasing humane attitudes.
Thus he has a lot to purchase within his lifetime!
His poverty increases in direct ratio to the wealth he receives. His firm belief is “I am very poor – this wealth always falls short of my requirements.”
a) Thus his greed increases.
b) His efforts are always on the increase.
c) New methods of approach and new works are initiated.
d) Mental turmoil is constantly on the increase.
e) Worry is ever on the increase.
f) Attachment with sense objects is ever increasing.
g) Affection for the parents is ever on the decline.
h) Inter-personal relationships suffer due to lack of love.
i) Love for one’s fellow men decreases.
j) Every trace of the conception of duty is eradicated.
k) Such a one completely forgets to give. His only desire is to receive.
Thus, such a one:
1. Acknowledges no child as his own.
2. Bears no love for anybody.
3. Has no friends.
4. Acknowledges no relationships.
– Such a brother has no sister.
– Such a sister has no brother.
– All relationships that make any demands on such a one are promptly severed.
– Each one who claims any rights on such a one is discarded. Only those relationships are nurtured which can bear any gain for such a one.
This attribute has led to a dual consequence. On the one hand, it has led to great progress in the world. Science has invented every possible means of happiness and comfort at every level. It has also aided in making the world more beautiful. On the other hand, look at what man is doing. He wants to acquire everything for personal benefit.
a) His greed has expanded in ratio with worldly progress.
b) His wealth falls short in inverse ratio to the increase of prosperity.
c) His love decreases in proportion to his increasing material gains.
d) His duty towards the world is similarly disregarded.
Science is progressing in order to promote happiness. It has granted every comfort to man – yet the consequences are sorrow and discontentment.
This is the bequest of the attribute of rajas:
The funeral of love does proceed
For the rapacious must satiate his greed.
Inert and dead is the wealth he acquires
For this is the age of material desires.
“May my plans succeed,”
Is the covetuous one’s prayer.
“Whoever claims rights over me,
His funeral shall I prepare.”
Only when his obligations towards Duty are buried
Can he gain the sought after wealth.
Will he never perceive the chasm
Between life’s values and mere pelf?
अध्याय १४
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१२।।
भगवान अर्जुन को रजोगुण की वृद्धि के लक्षण बताते हुए कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर,
२. लोभ, प्रवृत्ति, अशान्ति, नित्य नव काज का आरम्भ, विषय उपभोग की लालसा,
३. ये सब उत्पन्न होते हैं।
तत्त्व विस्तार :
रजोगुण, लोभ और अतृप्ति को बढ़ाता है। रजोगुणी को आज के लिये ही नहीं,
क) पूर्ण जीवन के लिये धन चाहिए!
ख) बच्चों के लिये भी धन चाहिए।
ग) बल्कि बच्चों के भी पूर्ण जीवन के लिये धन चाहिए!
घ) बच्चों के लिये ही नहीं, उनके बच्चों के लिये भी धन चाहिये!
ङ) धन इतना चाहिये कि जो चाहिये, मोल लिया जा सके!
छ) चाहना इतनी है कि संसार की हर रुचिकर वस्तु आपकी चाहना में समाहित है।
नन्हूं! धन की कीमत आपकी चाहना राही पड़ती है। रजोगुणी को सच ही बहुत धन चाहिए। स्थूल विषय ही नहीं, उसे तो धन से,
1. इज्ज़त भी मोल लेनी है।
2. वफ़ा भी मोल लेनी है।
3. श्रेष्ठता भी मोल लेनी है।
4. ज्ञान भी मोल लेना है।
5. इन्सान भी मोल लेना है।
6. प्रेम भी मोल लेना है।
7. भगवान भी मोल लेना है।
8. इन्सानियत भी मोल लेनी है।
सो, बहुत कुछ इसी जीवन में मोल लेना है।
ऐसे को जितना धन मिले, उतनी ही उसकी निर्धनता बढ़ती है। ‘हम तो बहुत ग़रीब हैं, धन कम पड़ जाता है,’ ऐसा वे मानते हैं। इस कारण उनका :
क) लोभ बढ़ता जाता है।
ख) चेष्टायें बढ़ती जाती हैं।
ग) नित नव काज आरम्भ होते हैं।
घ) मनो चंचलता बढ़ती जाती है।
ङ) चिन्ता बढ़ती जाती है।
च) विषयों से संग बढ़ता जाता है।
छ) माँ, बाप से प्रेम कम होता जाता है।
ज) आपस में प्रेम कम होता जाता है।
झ) इन्सान से प्रेम कम होता जाता है।
ञ) कर्तव्य का नामोनिशान मिटता जाता है।
त) देना तो वे भूल ही जाते हैं, हर पल लेने की चिन्ता लगी रहती है। इस कारण इनका :
1. कोई पुत्र नहीं होता।
2. कोई नाता नहीं होता।
3. कोई बन्धु नहीं होता।
4. कोई प्यार नहीं होता।
5. कोई यार नहीं होता।
– ऐसे भाई की कोई बहन नहीं होती।
– ऐसी बहन का कोई भाई नहीं होता।
– जहाँ कर्तव्य है, वे सब नाते टूट जाते हैं।
– जहाँ देना पड़ता है वे सब नाते टूट जाते हैं।
– जहाँ दूसरे का कोई हक होता है, वे सब नाते छूट जाते हैं। केवल जहाँ लेने की बात होती है, वहाँ नाते बन्धु कहलाते हैं।
दुनिया में इस कारण एक ओर तो महा प्रगति हो रही है। विज्ञान ने हमें कौन से सुख साधन नहीं दिये? हर पहलू में हमें चैन देने के और दुनिया को सुन्दर बनाने के यत्न किये जा रहे हैं और दूसरी ओर जीव क्या कर रहा है? वह सब कुछ पाना चाहता है। जितनी प्रगति हो रही है,
क) उसकी इतनी ही लालसा बढ़ती जाती है।
ख) उतना ही धन कम पड़ जाता है।
ग) उसके अनुरूप ही जहान से प्रेम मिट जाता है।
घ) उसके अनुरूप ही जहान से कर्तव्य मिट जाता है।
सुख के लिये विज्ञान बढ़ाया जा रहा है। विज्ञान ने सुख सुविधा दी जीव को, किन्तु परिणाम केवल दु:ख ही हो गया है।
यह है रजोगुण की देन!
*प्रेम की अर्थी१ निकलती है,
अर्थी२ ने अर्थ३ जो पाना है।
मृतक अर्थ३ अर्थी२ धर आये,
अर्थ३ का आज यह ज़माना है।।
अर्थ६ सार्थक हो जाये,
अर्थी२ की यह ही चाहना है।
जिसका भी हक हमपे है,
उसे ही अर्थी५ बनाना है।।
कर्तव्य की गर अर्थी१ निकले,
अर्थ३ तब ही अर्थी२ पाये।
अर्थ३ अर्थी४ का भेद अर्थ६,
अर्थी२ समझ ही कब पाए।
(*अर्थ अर्थी के सूक्ष्म अर्थ :
१. जनाज़ा २. मतलबी, लोभी ३. धन ४. मूल्य, जीवन सिद्धि ५. मृतक ६. योजन और कथन)