अध्याय १३
सर्वत: पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत: श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।१३।।
अब फिर भगवान उस अकथनीय का निरूपण करते हैं :
शब्दार्थ :
१. वह सब ओर हाथ पैर वाला;
२. सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला;
३. सब ओर श्रोत्र वाला है;
४. क्योंकि वह पूर्ण संसार को आवृत किये हुए है।
तत्त्व विस्तार :
वैश्वानर रूप में
क) सम्पूर्ण मुख उसी के हैं।
ख) सम्पूर्ण कर उसी के हैं।
ग) सम्पूर्ण नेत्र उसी के हैं।
घ) सम्पूर्ण सिर उसी के हैं।
ङ) सम्पूर्ण श्रोत्र उसी के हैं।
च) सम्पूर्ण पाद उसी के हैं।
– इन सबका आधार वह ही तो है।
– इन सबमें प्रवृत्त वह ही तो है।
– इन सबमें प्रतिष्ठित वह ही तो है।
– इन सबका अधिष्ठान वह ही तो है।
यदि इसे दूसरे दृष्टिकोण से कहें तो समष्टिगत रूप में,
1. धरती ही उसके पाद हैं,
2. सूर्य ही उसके नेत्र हैं,
3. वायु ही उसके श्रोत्र हैं,
4. प्राकृतिक त्रिगुणात्मिका शक्ति ही उसके कर हैं,
5. चेतना ही उसका सीस है, तथा
6. आकाश ही उसका मुख है।
व्यक्तिगत रूप से तो जीव जहाँ भी है, वह उस वैश्वानर का ही रूप है। जो है, सब वासुदेव ही है। हर जीव के तन, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, सब उसी के हैं। वह आत्मा, परम क्षेत्रज्ञ, सर्व व्यापक है और अखिल साक्षी है। वह निराकार होते हुए भी अखिल रूप है।
नन्हूं! इसे पुन: स्वप्न के दृष्टांत से समझ ले! ज्यों सम्पूर्ण स्वप्न का संसार दृष्टा के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, उसका सम्पूर्ण दृष्य केवल स्वप्न दृष्टा है। ज्यों सम्पूर्ण स्वप्न सृष्टि में केवल दृष्टा ही सर्वव्यापक होता है, त्यों, सम्पूर्ण सृष्टि उस आत्मा में ही स्थित है। त्यों, सम्पूर्ण सृष्टि के कर्म, दर्शन, वाक्, श्रवण भी उसी के अन्तर्गत हो रहे हैं। ज्यों स्वप्न सृष्टि में स्वप्न दृष्टा ही होता है, परन्तु स्वप्न दृष्टा स्वप्न सृष्टि नहीं होता; इसी तरह पूर्ण वही है और वह कुछ भी नहीं है।
पूर्ण में वह ओत् प्रोत् है, वह सब कुछ है किन्तु वह कुछ नहीं है।