Chapter 13 Shloka 33

यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।३३।।

As the one sun illumines

the whole universe,

so also the one kshetragya

illumines the entire kshetra.

Chapter 13 Shloka 33

यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।३३।।

Bhagwan says, O Arjuna!

As the one sun illumines the whole universe, so also the one kshetragya illumines the entire kshetra.

Just as one sun lights up the entire world, similarly in the kshetra of the body the one kshetragya causes:

a) consciousness to emerge;

b) illumination to dawn;

c) the life force to flow;

d) energy to do its work.

That Atma Self which is synonymous with the kshetragya, is the mainstay of:

1. creation,

2. sustenance,

3. destruction,

4. the propulsion of mortal beings in varied activities,

5. the potential of Prakriti,

6. the energy of the threefold attributes of Prakriti.

That kshetragya is the Atma and the kshetra is the body.

Look Kamla, whatever transpires in this world,

a) happens as a consequence of the union of kshetra and kshetragya;

b) happens due to the fusion of Prakriti with Purusha;

c) happens due to the alliance of the inert and the conscious.

Everything happens spontaneously and automatically. Then where is there room for ego? Where is there any scope for attachment?

1. Why be proud of this body which is neither yours nor in your control?

2. Why be attached to these actions which are not dependent on you, nor are they in your control?

3. Why bear a grudge against anyone, when they are not even aware that all that they claim to be their own is not actually in their power?

Little one, attachment can only give you sorrow, agony and worry. It can do nothing apart from this, nor can it change anything. Therefore renounce this attachment. Your well-being lies in this.

अध्याय १३

यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।३३।।

भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. जैसे अकेला सूर्य,

२. इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है,

३. वैसे ही एक क्षेत्रज्ञ

४. सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।

तत्त्व विस्तार :

ज्यों एक सूर्य से सम्पूर्ण जहान प्रकाशित होता है, त्यों एक ही क्षेत्रज्ञ से तन रूपा क्षेत्र में,

क) चेतना आती है;

ख) प्रकाश आता है;

ग) प्राण रहते हैं;

घ) शक्ति काम करती है।

इस आत्म स्वरूप क्षेत्रज्ञ के आधार पर,

1. उत्पत्ति होती है।

2. स्थिति होती है।

3. लय होती है।

4. जीव भूत काज कर्म में प्रवृत्त होते हैं।

5. प्रकृति भी समर्थवान् होती है।

6. त्रिगुणात्मिका शक्ति भी शक्ति सम्पन्न होती है।

आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है, तन को ही तुम क्षेत्र जानो।

देख कमला मेरी जान्! यहाँ जो भी होता है,

– क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संयोग से होता है।

– प्रकृति पुरुष के संयोग से होता है।

– जड़ चेतन के मिलन से होता है।

फिर सब स्वत: होता है, इसलिये अहंकार की जगह कहाँ रह जाती है, संग की जगह कहाँ रह जाती है?

क) देह का अभिमान भी क्या करना, वह न ही तुम्हारा है और न ही तुम्हारे बस में है।

ख) कर्मों से संग भी क्या करना, जो न ही तुम्हारे हैं और न ही तुम्हारे बस में हैं, जो तुम्हारे अधीन ही नहीं हैं।

ग) किसी से गिला भी क्या करना, जो यह भी नहीं जानते, कि सब कुछ जो वे अपनाते हैं, उनके अधीन नहीं है?

नन्हीं! संग केवल दु:ख, संताप, चिन्ता, ही दे सकता है। इसके अतिरिक्त न यह कुछ कर सकता है, न यह कुछ बदल सकता है। सो, इसे छोड़ ही दो, इसी में कल्याण है।

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