Chapter 13 Shloka 26

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम्।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।२६।।

O best of the Bharat clan – Arjuna!

Know that whatsoever is born,

animate or inanimate, is born from

the conjunction of kshetra and kshetragya.

Chapter 13 Shloka 26

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम्।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।२६।।

The Lord now explains that this entire creation emerges from the conjunction of kshetra and kshetragya.

O best of the Bharat clan – Arjuna! Know that whatsoever is born, animate or inanimate, is born from the conjunction of kshetra and kshetragya.

Little one, the Lord says:

a) All animate and inanimate objects are born of the union of kshetra and kshetragya.

b) All gross and subtle objects are similarly created.

c) In fact, the entire universe is the consequence of the mergence of Purusha and Prakriti.

d) This entire creation is the effect of the confluence of Atma and Prakriti.

e) This entirety is a result of the coming together of Prakriti and That indestructible Essence.

All that exists, manifest and unmanifest, abides in the Atma. Its creation, sustenance and destruction occur within the Atma and are wrought by the threefold energy of Prakriti. This has already been discussed in great detail. You have now to decide whether you wish to identify with the Prakriti fraction that exists within you or with the indestructible, indivisible Atma Essence. If you identify with the former, you will always remain susceptible to the cycle of birth and death. If, however, you leave the Prakriti fraction that exists within you i.e. the body, mind, intellect, ego etc. to the authority of Prakriti, then you will merge in the Atma. Thus shall the veil of illusion covering the mind and intellect be lifted and your intellect gain stability. You will then become a Sthit Pragya. (See chapter 2 for an elucidation on the Sthit Pragya.)

अध्याय १३

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम्।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।२६।।

अब भगवान बताते हैं कि पूर्ण उत्पत्ति क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संयोग से होती है और कहते हैं कि अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. यावन्मात्र, जो कुछ भी स्थावर जंगम पदार्थ उत्पन्न होते हैं,

२. उन्हें क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न हुए जान।

तत्त्व विस्तार :

नन्हूं! भगवान कहते हैं कि :

क) पूर्ण स्थावर और जंगम पदार्थ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न होते हैं।

ख) पूर्ण जड़ तथा चेतन पदार्थ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न होते हैं।

ग) पूर्ण सृष्टि प्रकृति तथा पुरुष के मिलन का परिणाम है।

घ) पूर्ण सृष्टि प्रकृति तथा आत्मा के मिलन का परिणाम है।

ङ) पूर्ण सृष्टि प्रकृति तथा अक्षर तत्त्व के मिलन का परिणाम है।

जो भी दृष्ट या अदृष्ट सृष्टि है, वह आत्मा में ही स्थित है और उसकी उत्पत्ति, स्थिति, लय, आत्म सत्ता में ही, त्रिगुणात्मिका शक्ति रचती है। पहले ही इसे सविस्तार कह आए हैं। देखना तो यह है कि तूने प्रकृति के अंश के तद्‍रूप होना है या अक्षर अव्यय आत्म तत्त्व के! यदि तू प्रकृति के तद्‍रूप होकर अपने तन से संग कर ले तो उस आत्म सत्ता के बल पर बार बार जन्म मृत्यु को प्राप्त करेगी; किन्तु यदि तू प्राकृतिक रचना तन, मन, बुद्धि, तथा अहंकार इत्यादि को प्रकृति पर ही छोड़ दे तो आत्मा में विलीन हो जायेगी। तब मन तथा बुद्धि के आवरण मिट जायेंगे। तब ही तुम्हारी बुद्धि स्थिरता पा लेगी। यानि तुम स्थित प्रज्ञ भी हो जाओगी।

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