Chapter 13 Shloka 16

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।१६।।

Describing the all pervading essence

of the Supreme Atma, Bhagwan says:

And That One, although indivisible, seems to exist as

divided in all beings; That One – the goal of knowledge –

is the sustainer, annihilator and creator of all.

Chapter 13 Shloka 16

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।१६।।

Describing the all pervading essence of the Supreme Atma, Bhagwan says:

And That One, although indivisible, seems to exist as divided in all beings; That One – the goal of knowledge – is the sustainer, annihilator and creator of all.

1. That Indivisible One seems to become divided.

2. He who is a united whole, dons the myriad forms of the universe.

3. He Himself is the cause of creation, sustenance and annihilation.

4. He Himself dons every form within Himself and through Himself.

5. He Himself is the original source, He is sustained within His Self and is reabsorbed again into Himself.

6. How can we understand such a one, who is Himself everything?

Remember, the Lord Himself has said that He is sat and He is asat as well.

Look little one, just as in the dream there is no essential difference between the dream witness and the faculty of dreaming and the experience of dreaming, so also:

1. All the actors of the dream are in fact the dream witness.

2. The animate and the inanimate in the dream are all the dream witness.

3. The sound, the words, the actions of the dream are all the dream witness.

4. All the names and forms of the dream are in fact the dream witness.

5. The witness is the mainstay and support of the dream.

6. The minds and intellects of the varied dream participants are all part of the dream witness.

7. The nature of the dream actor, his thoughts, his every tendency are all merely an extension of the dream witness.

8. The site of the re-absorption of that dream is also the dream witness, just as the sole substratum of the universe is Brahm.

The dream of the witness cannot divide that witness. Despite the fact that the entire creation of the dream takes place within the witness, yet he remains whole and undivided. He appears divided; yet he is ever complete and whole.

So also, despite the creation of the myriad forms of the entire universe, Brahm remains undivided and complete.

अध्याय १३

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।१६।।

परमात्मा के सर्व व्यापी स्वरूप का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. और वह सब प्राणियों में,

२. अविभक्त होने पर भी,

३. विभक्त के समान स्थित हैं,

४. वह ज्ञेय सब भूतों का भर्ता, संहार कर्ता और उत्पत्ति कर्ता हैं।

तत्त्व विस्तार :

क) वह अखण्ड, खण्डित सा हो जाता है।

ख) अविभक्त विभक्त सा दर्शाता है।

ग) पूर्ण एक जो आप है, वह विश्व रूप धरे तो विभिन्न रूप दर्शाता है।

घ) उत्पत्ति, स्थिति, लय कर्ता वह आप है।

ङ) अपने में अपने आप से आप ही हर रूप धरने वाला वह आप है।

च) अपने से उत्पन्न, अपने आप में स्थित, फिर आप ही लय हो जाने वाला वह आप है।

छ) ऐसे को कैसे समझें, जो सब कुछ आप ही है?

याद रहे वह कह चुके हैं कि सत् असत् वह आप हैं।

देख मेरी जान्! ज्यों स्वप्न में स्वप्न दृष्टा, स्वप्न दृष्टि और स्वप्न दर्शन में कोई भेद नहीं होता, क्योंकि :

1. सम्पूर्ण स्वप्न नट स्वप्न दृष्टा ही हैं।

2. स्वप्न में सम्पूर्ण जड़ चेतन स्वप्न दृष्टा ही हैं।

3. स्वप्न में ध्वनि, वाक्, क्रिया सब कुछ दृष्टा आप ही हैं।

4. स्वप्न में नाम रूप सब स्वप्न दृष्टा आप ही हैं।

5. स्वप्न में आधार, अधिष्ठान केवल दृष्टा ही है। स्वप्न में विभिन्न स्वप्न नटों की मन बुद्धि, केवल दृष्टा ही है।

6. स्वप्न में स्वप्न नट का स्वभाव, भाव, सब केवल दृष्टा ही है।

7. स्वप्न में स्वप्न नट की हर वृत्ति केवल दृष्टा ही है।

8. स्वप्न का लय स्थान भी वह दृष्टा ही है, त्यों जग का एक आधार ब्रह्म ही है।

दृष्टा का पूर्ण स्वप्न दृष्टा को विभाजित नहीं कर सकता। दृष्टा में पूर्ण रचना होने पर भी दृष्टा पूर्ण ही रहता है। वह विभाजित सा दिखता है, वास्तव में वह विभाजित नहीं होता है; उसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि की रचना होने पर भी ब्रह्म विभाजित नहीं होते।

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