Chapter 12 Shloka 9

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।

If you are unable to

fix the mind steadily in Me,

then desire to attain Me

through the Yoga of practice.

Chapter 12 Shloka 9

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।

Listen to what the Lord is saying. It seems as though He is pleading for His devotee’s love! He says, O Arjuna!

If you are unable to fix the mind steadily in Me, then desire to attain Me through the Yoga of practice.

“Never mind if you find it difficult to concentrate your mind on Me; simply practice doing so.

1. At least strive to remember Me.

2. Endeavour to keep Me with you always.

3. Make all efforts to make Me your witness.

4. Strive to know Me through your intellect.

5. Endeavour to translate Me in your life.

6. Let your intellect use its imagination and try to understand Me.

7. And listen! This is the very purpose of devotion. This indeed is its longing.

8. You too, are My very Self as I have already told you.

Try to understand how I have made this statement and practice applying it in your life.”

Listen little one, the Lord says to Arjuna, “At least harbour a desire to attain Me!”

It seems as though the Lord is Himself trying to cajole Arjuna, saying, “Come to Me and I shall emancipate you!”

Little one, this is the identification of the Lord with His devotees. Such is His humility. It is therefore true when they say that the Lord follows His true devotee. See how the Lord is pleading with Arjuna. How lovingly must He have looked upon Arjuna! How humbly must He have spoken to Arjuna!

It seems as though:

1. The Lord is almost worshipping Arjuna.

2. The Lord is praying to Arjuna.

3. He is sitting by the side of His devotee in a devotional stance.

4. He is sitting at His devotee’s feet and pleading: “O Arjuna! Please listen to me! Ignite the spark of love in your heart! I am your friend; I shall indeed emancipate you. Believe Me. I am not too bad. People do not know Me therefore they criticise Me. But you know Me well. I tell you truly, I shall always be by your side. Look towards me – that is all I ask of you!”

Little one, this is the manifest form of that Indivisible Atma Itself. This is His love for His devotee. Such is the supreme humility of that Atma Itself. A true devotee hears these words and is moved to tears; but the one proud of his intellect deems the Lord proud and egoistic as well.

अध्याय १२

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ।।९।।

देख भगवान क्या कह रहे हैं! ऐसा प्रतीत होता है,वह दामन फैलाकर अपने प्रिय से प्रीत की याचना कर रहे हैं। कहते हैं, ‘हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. यदि चित्त को तू मुझ में स्थिर स्थापन करने में असमर्थ है,

२. तब अभ्यास योग से तू मुझको प्राप्त होने की इच्छा कर।’

तत्त्व विस्तार :

भगवान कहते हैं गर मन में मुझे रखना मुश्किल लगता है, तो कोई बात नहीं, तू अभ्यास कर ले!

क) मेरे को याद करने की कोशिश तो कर!

ख) मुझे अपने साथ रखने की कोशिश तो कर!

ग) मेरा साक्षित्व बनाने की कोशिश तो कर!

घ) बुद्धि से मुझे जानने की कोशिश तो कर!

ङ) जीवन में मुझे उतारने की कोशिश तो कर!

च) बुद्धि से कहो ज़रा कल्पना तो करे और मुझे जानने का प्रयत्न तो करे।

छ) और सुन! भक्ति का प्रयोजन भी यही होता है। भक्ति की पुकार भी यही होती है।

ज) अर्जुन! तुम जीवन में मुझे उतारने का अभ्यास करो।

झ) तू भी तो मैं ही हूँ, तुझे कह कर तो आया हूँ।

तू इसे जानने के यत्न कर कि यह मैंने कैसे कहा और इसे जीवन में मानने के लिए अभ्यास कर।

सुन नन्हीं! भगवान अर्जुन से कहते हैं, ‘तू मुझे पाने की इच्छा तो कर।’

ऐसा लगता है, भगवान स्वयं मना रहे हैं अर्जुन को और कह रहे हैं, ‘आजा मेरे पास, मैं तुझे मुक्ति दूँगा!’

नन्हीं! यही भगवान का योग है अपने भक्तों से। यही भगवान का झुकाव है अपने भक्तों के प्रति। इसलिए कहते हैं, ‘भगवान अपने भक्तों के पीछे पीछे फिरते हैं।’ भगवान स्वयं अर्जुन को मनाते जा रहे हैं। कितने प्रेम से उसे देख रहे होंगे! कितने विनीत भाव से उसे यह सब कह रहे होंगे!

ऐसा लगता है,

1. भगवान अर्जुन की आरती ले रहे हैं।

2. भगवान अर्जुन से प्रार्थना कर रहे हैं।

3. भगवान अर्जुन की उपासना कर रहे हैं।

4. भगवान स्वयं अपने भक्त के चरणों में बैठे हैं और उसे कहते है :

‘हे अर्जुन! मेरी बात मान ले, अपने पत्थर दिल में मेरे लिये प्रेम उत्पन्न कर! मैं तेरा सखा हूँ, मैं तुझे तार दूँगा! मेरा एतबार तो कर। मैं बुरा नहीं हूँ, लोग मुझे नहीं जानते, इस कारण मेरी निन्दा करते हैं। तू तो जानता है मैं बुरा नहीं हूँ। सच कहता हूँ, नित्य तेरा साथ नभाऊँगा। बस! तू मेरी तरफ़ देख तो ले।’

नन्हीं! यही उस अखण्ड आत्म स्वरूप का रूप है, यही उसका भक्त वत्सल रूप है, यही अखण्ड आत्म स्वरूप का परम झुकाव है।

भक्त यह वाक्य सुनकर गद्गद् हो जाते हैं। बुद्धि गुमानी यह सुन कर भगवान को गुमानी कहते हैं।

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