Chapter 11 Shloka 22

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।

गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।।२२।।

The Rudras, Adityas and Vasusthe Saadhyas

and Vishvadevasthe Ashvini Kumars and Maruts,

the gathering of ancestors and the multitudes of

Yakshas, Rakshasas and Siddhas (Perfect Beings);

all these look upon You with awe.

Chapter 11 Shloka 22

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।

गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।।२२।।

Struck with awe, Arjuna says:

The Rudras, Adityas and Vasus, the Saadhyas and Vishvadevas, the Ashvini Kumars and Maruts, the gathering of ancestors and the multitudes of Yakshas, Rakshasas and Siddhas (Perfect Beings); all these look upon You with awe.

Arjuna exclaims, “All beings that exist:

a) are gazing upon You;

b) call out to You;

c) are endeavouring to know You.”

In fact, it is Arjuna who is amazed and overawed. He is attributing this awe to others. A man imputes his own attributes upon others. One who is evil will consider everybody to be evil as well. A saint will ascribe everyone with saintly attributes. The one who abides in the Atma, can see naught but the Atma in all; this is a natural law.

Since Arjuna himself was witnessing the Lord’s Cosmic Presence with awe, he felt that all the yakshas, demons and the deities were similarly gazing upon the Lord with amazement.

Listen little one, Arjuna is perceiving the Lord’s cosmic form. He is perceiving all these deities, demons and perfect beings established within the Lord’s Person. He is witnessing this entire creation established within the Atma. He is not perceiving this entirety as established in the Lord’s material body self – he is witnessing the universe in a divine, immaterial manifestation of the Lord.

अध्याय ११

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।

गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।।२२।।

विस्मय से चकित हुए अर्जुन आगे कहने लगे :

शब्दार्थ :

१. रुद्र, आदित्य, वसु, तथा जो साध्य गण हैं,

२. तथा विश्व देव, अश्विनी कुमार, मरुत,

३. पितरों के समुदाय,

४. यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय,

५. ये सब ही विस्मित होकर, आपको देख रहे हैं।

तत्व विस्तार :

अर्जुन ने कहा पूर्ण जो जहाँ भी हैं,

क) सब तुझको ही निहार रहे हैं।

ख) सब तुझको ही पुकार रहे हैं।

ग) सब तुझको ही जानने के यत्न कर रहे हैं।

अजी! विस्मय से ये क्या देखेंगे, विस्मय से तो अर्जुन देख रहा है। अपने विस्मय का वह उन सब पर आरोपण कर रहा है।

जो जीव स्वयं होता है, वही वह दूसरे को समझता है। जो स्वयं बुरा हो, उसे सब बुरे ही लगते हैं और सन्त को सब सन्त ही लगते हैं। जो स्वयं आत्मा में स्थित हो जाते हैं, उन्हें आत्मा बिना कुछ नहीं दिखता, यह तो नियम की ही बात है।

क्योंकि अर्जुन स्वयं आश्चर्य चकित होकर भगवान के विराट रूप को देख रहा है, उसे लगता है कि सम्पूर्ण देवता गण तथा यक्ष राक्षस भी भगवान को आश्चर्य युक्त होकर देख रहे हैं।

देख नन्हीं! अर्जुन को विराट रूप के दर्शनहो रहे हैं। वह इन सब देवताओं, असुरों और सिद्ध गणों को भगवान के आन्तर में स्थित देख रहे हैं। वह सम्पूर्ण सृष्टि को अखण्ड आत्म तत्व में स्थित देख रहे हैं। वह सब कुछ भगवान के लौकिक तन में नहीं देख रहे, वह तो मानो आत्मा के अलौकिक तन रहित अस्तित्व में पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख रहे हैं।

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