- Home
- Ma
- Urvashi
- Ashram
- The Arpana Ashram
- Universal Family
- Celebrations and Festivals
- The Arpana Family
- Principal Architects
- Inspirational Emblem
- Arpana’s Mission & Activities
- Temple Activities & Discourses
- Publications
- Audio & Video Research Office
- Spiritual Stage Presentations
- A Temple of Human Accord
- Arpana’s Archives & Library
- Visitors Comments
- Arpana Film
- Research
- Service
- Products
Chapter 11 Shlokas 14, 15
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।१४।।
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।१५।।
Then Arjuna, filled with wonder, with his hair standing on end, bowing his head in obeisance before the Lord, said with joined hands,
“O Lord! I see in Your person all the deities and this entire gathering of beings. I also see therein Brahma seated on His lotus seat and all the great sages and divine serpents.”
Chapter 11 Shlokas 14, 15
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।१४।।
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।१५।।
Then Arjuna, filled with wonder, with his hair standing on end, bowing his head in obeisance before the Lord, said with joined hands, “O Lord! I see in Your person all the deities and this entire gathering of beings. I also see therein Brahma seated on His lotus seat and all the great sages and divine serpents.”
a) Arjuna was witnessing the entire world resting in the Supreme Purusha.
b) Overawed and filled with wonder, Arjuna witnessed the cosmic form of the Lord.
c) Head bowed in utter humility, he rendered obeisance at the Lord’s feet.
d) Having witnessed the Eternal Indestructible Essence, he began to describe It.
e) Having witnessed this entirety in That Omnipresent One, he began to perceive the indivisibility of That Whole.
f) He began to witness all beings, gods, all the great sages as well as Brahma within That Eternal Presence.
Look Kamla, let me explain this to you taking the example of the dream. It is the dream faculty that diversifies and appears as the entire dream.
1. It manages to create a colossal world.
2. It creates even people.
3. It produces their characteristics.
4. It invents all forms – inert and moving.
5. At times it creates the most frightening situations.
6. At other times it creates the most pleasant situations.
7. It creates death and birth.
8. It invents dreams of meeting and coming together and also dreams of parting and separation.
Therefore one single faculty creates varied forms, thought processes, characteristics and circumstances.
a) Hence this entire dream world is nothing but the faculty of dreaming.
b) Nothing exists there apart from the one who witnesses the dream.
c) All that exists in the scene is only the dreamer.
d) And when the dream ceases, all the dream objects merge into that seer of the dream.
e) Having emerged from the seer, that dream world is re-absorbed into that seer once again.
Similarly, this entire world is nothing but the Atma. We are all but actors in the dream of That Supreme One. We are His, we are from Him, we are within Him, but we are not He.
This is not the individual’s dream – this is the dream of Brahm. This is the dream of the Atma. This dream is intransient, long lasting and one which will continue from life to life.
The Atmavaan is aware of this truth. He perceives with his divine vision that this entire world is merely a fragment of That Indivisible Essence. Knowing this truth, he identifies with the Supreme.
However, one must remember, this profound Truth is revealed only through the practice of yagya, tapas and daan – sacrificial offering, endurance and fortitude, and charity. When one becomes an Atmavaan, the attitude of yagya, tapas and daan becomes one’s inherent nature. Then one’s actions will resemble the Lord’s own.
अध्याय ११
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।१४।।
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।१५।।
तब अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. आश्चर्य से चकित हुआ,
२. पुलकित रोम हुआ,
३. विश्व रूप भगवान को,
४. सीस झुका कर प्रणाम करके,
५. हाथ जोड़े हुए बोला!
६. “हे देव! मैं आपके शरीर में,
७. सारे देवताओं को
८. और भूत समुदायों को,
९. कमल के आसन पर स्थित ब्रह्मा को,
१०. सारे ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूँ।”
तत्व विस्तार :
क) अर्जुन परम पुरुष पुरुषोत्तम में विश्व रूप जग देख रहा है।
ख) रोमांचित हुआ अर्जुन आश्चर्य चकित हो विराट रूप देख रहा है।
ग) सीस झुका नतमस्तक हो वह भागवद् चरण में प्रणाम करने लगा।
घ) नित्य अविनाशी तत्व देख वह बखान उसी का करने लगा।
ङ) पूर्ण में पूर्ण देख कर अखण्ड की अखण्डता देख रहा है।
च) अर्जुन जीव, देवता, ब्रह्मा, ऋषिगण, सब को उसी अखण्ड में देख रहा है।
देख कमल! तुझे समझाऊँ, स्वप्नाकार वृत्ति ही स्वप्न में विभाजित होकर पूर्ण स्वप्न रच लेती है:
1. वह इतना बड़ा संसार रच लेती है;
2. जीव भी रच लेती है;
3. जीवों के भिन्न भिन्न स्वभाव रचती है;
4. जड़ चेतन स्वरूप के रूप रचती है;
5. कभी इतनी भयंकर परिस्थितियाँ बना देती है;
6. कभी महा सौम्य परिस्थितियाँ बना देती है;
7. कभी मृत्यु रचाती है, कभी जन्म रचाती है;
8. कभी संयोग, कभी वियोग पूर्ण स्वप्न रच लेती है।
यानि एक ही वृत्ति नाना प्रकार के रूप रचती है, नाना प्रकार के भाव, नाना प्रकार के स्वभाव और नाना प्रकार की परिस्थितियाँ रचती है।
क) यह पूर्ण स्वप्न का संसार एक स्वप्नाकार वृत्ति ही तो है।
ख) वहाँ द्रष्टा के सिवा कुछ नहीं।
ग) सम्पूर्ण दृश्य में जो भी है, सब बस इक द्रष्टा ही तो है।
घ) जब स्वप्न टूट जाता है तो सब द्रष्टा में ही समाहित हो जाता है।
ङ) द्रष्टा से उत्पत्ति पाकर पुन: स्वप्न संसार द्रष्टा में लय हो जाता है।
इसी विधि यह सम्पूर्ण संसार उस एक आत्मा के सिवा कुछ नहीं है। उस परम के स्वप्न में मानो हम सब नट हैं। उसी के हैं, उसी से हैं, उसी में हैं, पर ‘वह’ नहीं हैं।
यह जीव का स्वप्न नहीं, यह ब्रह्म का स्वप्न है। यह मानो आत्मा का स्वप्न है। यह शाश्वत है, दीर्घ है, जन्म जन्म चलता है।
आत्मवान् यह सब जानता है। वह दिव्य दृष्टि से देख लेता है कि यह पूर्ण संसार उस अखण्ड स्वरूप का अंश मात्र है। वह वास्तविकता जानते हुए परम के तद्रूप हो जाता है।
पर याद रहे!
यह स्वप्न का राज़ यज्ञ, तप और दान से खुलता है। जब आप आत्मवान् हो जाते हैं तो यही यज्ञ, तप और दान आपका स्वभाव हो जाता है, तब आप स्वत: भगवान जैसे कर्म करते हैं।