अध्याय ११
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।१०।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।११।।
संजय कह रहे हैं कि :
शब्दार्थ :
१. अनेक मुख और नेत्र वाला,
२. अनेक अद्भुत दर्शनों वाला,
३. अनेक दिव्य आभूषणों वाला,
४. अनेक दिव्य शस्त्र उठाये हुए,
५. अनेक दिव्य माला और वस्त्र धारण किये हुए,
६. दिव्य गंध लेपन किये हुए,
७. सब प्रकार के आश्चर्य युक्त,
८. सीमा रहित विराट रूप,
९. परम देव परमेश्वर को (अर्जुन ने देखा)।
तत्व विस्तार :
भगवान का यह दिव्य दर्शन जो अर्जुन कर रहे थे, संजय उसका वर्णन करने लगे।
भगवान का विराट रूप दर्शन :
कहते हैं कि भगवान ने अर्जुन को अपना विश्व रूप दिखाया।
क) उस रूप में अनेकों मुख तथा नेत्र थे।
ख) अनेकों आश्चर्य चकित कर देने वाले दर्शन थे।
ग) वह दिव्य रूप, दिव्य आभूषणों से सुसज्जित था।
घ) वह अनेकों दिव्य शस्त्रों को धारण किये हुए था।
ङ) वह अनेकों दिव्य मालाओं को पहने हुए था।
च) वह दिव्य गंध को लगाये हुए था।
यह सब महा आश्चर्यपूर्ण दर्शन थे, जो सर्व ओर मुख वाले परम देवों के आदि देव भगवान को अर्जुन ने देखा। नन्हीं! यहाँ भगवान परम ब्रह्म की अखण्डता दर्शाते हुए अपनी योगमाया के आसरे अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर यह दर्शा रहे हैं कि ‘पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, सब आत्मा में ही है।’
भगवान अर्जुन को पूर्ण की पूर्णता समझा रहे हैं। वह कहते हैं :
1. पूर्ण जग की दिव्यता उन्हीं में समाहित है।
2. पूर्ण जग में जो कुछ है, वह उन्हीं में स्थित है।
3. संसार में जो कुछ भी है उन्हीं में है, यह समझाते हुए मानो कह रहे हों कि, ‘अर्जुन! जो कुछ दिखता है, वह आत्मा में ही है।’
मानो भगवान समझा रहे हों कि :
क) भिन्नता में अभेदता है।
ख) अभेदता में ही भिन्नता दर्शाती है।
ग) जो भी संसार दिखता है, यह केवल माया है, केवल अज्ञान है।
घ) वास्तव में जो दिखता है, वह आपके आन्तर में है।
ङ) जो भी है, पूर्ण ब्रह्म ही है।
च) सगुण ब्रह्म रूपा प्रकृति भी ब्रह्म तत्व में लय हो जाती है।
छ) जो भी, जहाँ भी है, सब मानो ब्रह्म का माया रूप खिलवाड़ है।
देख नन्हीं! भगवान यहाँ देवता, नक्षत्र, दैवी तथा दिव्य अस्त्र शस्त्र तथा उस समय के सांसारिक जीव, सबको अपने आप में दर्शाने लगे हैं। ये सब दर्शा कर मानो वह यही कह रहे हैं कि, ‘इस सम्पूर्ण सृष्टि में जड़ चेतन, जो कुछ भी है, वे सब मुझी में है। जब तू भी नित्य निरासक्त हो जायेगा तब तू भी यही जानेगा कि सब तुझी में है।’
अक्षर ब्रह्म, आत्म स्वरूप, अखण्ड और अविभाजनीय है। भगवान अर्जुन को यहाँ यही तत्व समझाने के यत्न कर रहे हैं। भगवान अर्जुन को अक्षर ब्रह्म, अक्षर आत्म तत्व की ओर आकर्षित कर रहे हैं।