अथैकादशोऽध्याय:
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।१।।
अर्जुन भगवान से कहने लगे, हे भगवान!
शब्दार्थ :
१. मुझ पर अनुग्रह करने के लिये,
२. आपके द्वारा जो परम रहस्यपूर्ण अध्यात्म विषयक उपदेश कहा गया है,
३. उससे मेरा मोह नष्ट हो गया है।
तत्व विस्तार :
आत्मप्रिय कमला सुन! अर्जुन भगवान से कहने लगे:
क) आपकी अनुकम्पा और अतिशय कृपा से आपसे जो गुह्य ज्ञान सुना, उससे मेरा मोह नष्ट हो गया है।
ख) आपके भक्त वात्सल्य और करुणा से मेरा मोह नष्ट हो गया है।
ग) आपने मुझ पर जो दया की है, उससे मेरा मोह नष्ट हो गया है।
घ) आपने जो अतीव गुह्य अध्यात्म तत्व और सत्त्व समझाया है, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है। अब मैंने जान लिया है कि,
1. सब आप ही हैं।
2. यह सृष्टि रचना आपकी है।
3. पूर्ण रचनात्मक शक्ति पति आप ही हो।
4. कर्म चक्र के आधार आप ही हो।
5. जीव भूत रचयिता और पालन कर्त्ता आप ही हो।
6. जीव भूत धर्ता और पोषण कर्ता आप ही हो।
7. जीव भूत में हर अंग आपकी जड़ प्रकृति ही है।
8. जीव भूत में हर चेतना आपकी शक्ति ही तो है।
9. जीव भूत में मन बुद्धि आपकी रचना ही तो है।
10. जीव भूत में हर भाव भावना आपकी स्फ़ुरणा से ही तो है।
11. क्रिया कर्म जो जीव करते हैं, वह कर्म आपसे ही प्रेरित होते हैं।
12. सूक्ष्म में हर श्रेष्ठ भाव, आपकी ही विभूति है।
क्यों न कहूँ, बिन अहंकार सब आपकी ही विभूति है। कहाँ संग करूँ, किसे अपना कहूँ, जब सब आप ही हो? मेरा तो कोई व्यक्तित्व ही नहीं रहा। स्थूल सूक्ष्म सब आपके हो गये। जब मैं ही आपका हो गया तो बाकी क्या रह गया? नाम रूप मोरा नहीं रहा, सब तुम्हारा हो गया। अहंकार ने तन छोड़ दिया, जब तन तुम्हारा हो गया।
अहंकार का भाव ही मोह था जो तनो तद्रूपता के कारण हुआ था, मोह का पर्दा ही अज्ञान का अंधियारा था, वह गया तो उजियारा हो गया।
‘मैं’ ने जाना, कारण सबका आप ही हो, ‘कारण’ से ही सब उभर पड़ा है। आप से ही यह स्थूल तन उभरा है जिसे मैं अपनाता रहा हूँ। यह जान कर मेरा अहंकार टूट गया है।
अहंकार नित्य मानता था, ‘जो किया, मैंने किया, मैंने यह जग रच दिया है; मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं निपुण, चतुर बलवान् हूँ!’ आज यह जान कर कि ‘तन मेरा नहीं, तुम्हारा है,’ मेरा तन से मोह नष्ट हो गया है।