अध्याय ११
श्री भगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण:।।५२।।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।५३।।
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. मेरा जो रूप तूने देखा है,
२. यह देखना अति दुर्लभ है।
३. देवता गण भी सदा इस रूप को देखने की इच्छा करते हैं।
४. जैसे तूने मुझे देखा है,
५. इस प्रकार न वेदों से, न तप से, न दान से, न ही यज्ञ से
६. मैं देखा जा सकता हूँ।
तत्त्व विस्तार :
विराट रूप के दर्शन कठिन हैं। देख पुन: कह रहे हैं, ‘यह जो तूने मेरा विराट रूप देखा है और कोई नहीं देख सकता।’
1. चाहे वह पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर ले,
2. चाहे वह यज्ञ करे,
3. चाहे वह तप करे,
4. चाहे वह दान दे,
तब भी वह इस रूप को नहीं देख सकता। जो भी कर ले, उसे यह दर्शन नहीं हो सकते।
देवता गण भी इस दर्शन की अभिलाषा करते हैं, पर पा नहीं सकते। (श्लोक ११/४८ देखिये।)
भगवान के स्वरूप के दर्शन साधन सिद्ध नहीं। देख! यहाँ भगवान ने पुन: अपनी बात दोहराई है। ताकि
क) कहीं साधक गण भरमा न जायें।
ख) यह दर्शन साधन सिद्ध नहीं हैं।
ग) यह दर्शन केवल भगवान कृष्ण ही दे सकते हैं।
घ) विराट संकुचित नहीं हो सकता।
ङ) असीम सीमित नहीं हो सकता।
च) यह दर्शनगम्य बात नहीं, अनुभवगम्य बात है।
छ) यह स्थूल दर्शन नहीं, यह आन्तरिक दर्शन है।
आत्मवान् परम मौन को मौन में जानता है। वह इस तत्त्व को जानता है। वह इस सत् को जानता है।
आत्मवान् आत्म में विलीन होकर, मानो द्रष्टावत् जग में वर्तते हुए, इस विराट विश्व रूप परम सत् को जानता है, परन्तु मौन में मौन को जानता है, मौन को मौन होकर जानता है।
जब द्रष्टा, दर्शन और दृष्टि एक हो जाये तो कौन देखे और किसको देखे?
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय भी तो एक हो गया तो किसके दर्शन कौन ले?