अध्याय १०
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।४०।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।।४१।।
अब भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
हे अर्जुन!
१. मेरी दिव्य विभूतियों का तो कोई अन्त नहीं,
२. परन्तु (तेरे पूछने पर) मैंने विभूतियों का यह विस्तार, तेरे लिए संक्षेप से कहा।
३. जो जो भी विभूति युक्त, श्रीयुक्त और शक्तियुक्त है,
४. उसे तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न हुआ जान।
तत्व विस्तार :
सुन कमला!
भगवान यहाँ यही तो कह रहे हैं, यह सार्मथ्य जो तुझमें है,
1. यह मुझसे ही उत्पन्न हुई है।
2. यह मेरी ही है।
3. यह मैं ही हूँ।
फिर तू अहंकार क्यों करती है? तुझे गुमान क्यों? तू क्यों इन्हें अपना कहती है? इन्हें अपनाना छोड़ दे। इनसे जो तेरा मिथ्या संग है, वह छोड़ दे।
पहले कह रहे थे, ‘स्थूल विषयों से संग छोड़ दे।’ अब कह रहे हैं ‘अपने मन से संग छोड़ दे, अपनी शक्ति से संग छोड़ दे।’ शक्ति के परिणाम में जो मिले उससे भी संग छोड़ दे। अपने गुणों से संग छोड़ दे। दूसरों में भी जो शक्तियाँ हैं, उनसे राग या द्वेष छोड़ दे।
सब भगवान की देन है, सब आत्म तत्व ही है, यह जान कर सबमें भगवान के दर्शन कर। सबको भगवान जान कर उनमें ध्यान लगा।