Chapter 10 Shloka 39

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

And O Arjuna, I am the cause

of all living beings.

Nothing moving or stationary

is devoid of Me.

Chapter 10 Shloka 39

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

And O Arjuna, I am the cause of all living beings. Nothing moving or stationary is devoid of Me.

My very dear Kamla,

1. The energy of the three gunas of nature is the energy of the Supreme.

2. Whatever exists in the world is also based on the three gunas.

3. These three qualities create the entire world through the Lord’s divine Prakriti.

4. The inert and the moving, the conscious and those devoid of consciousness, all come within this orbit.

5. This threefold energy creates all in its tri-coloured hues.

6. It creates all within the authority of the Atma, having received consciousness from the Atma.

7. The Lord has endowed the mortal being with a mind and an intellect.

8. He also bestowed the ego upon the individual, which was a mere identifying factor.

9. The individual identified the mind and the intellect with the inert body.

10. Thus the conscious was subordinated to the inert.

That which was an integral part of Consciousness Itself, began to take pride in the inert fraction – in the attributes of the inert body and started to become arrogant and vain. This excessive attachment turned what was once divine into the temporal; else you, too, are a pure manifestation of the Supreme.

1. If the conscious aspect of the individual identifies with the Atma, all that transpires will indeed be divine.

2. All attributes are in fact divine – it is the ego inherent in all beings which contaminates them with demonic tendencies.

Little one, the Lord explains all this in order to annihilate your intrinsic ego. He says, the evil, the virtuous, the saintly and the demonic are all He. You will experience this truth only when you are able to quell your delusive ego and conquer bodily attachment.

Little one, it is only when the conscious element merged with the inert intellect, that it awakened and became luminous. When that intellect mistakenly formed an attachment to the body, it took the form of the dehatma buddhi or the intellect which is subservient to the gross body. Such an intellect referred to that body as ‘I’ and consequently lost its divine nature.

If this intellect had not been thus subservient to the body and had identified itself with the Supreme Atma wherefrom it had gained its identity:

a) you would have resided in eternal bliss;

b) you would have been ever detached;

c) you would have remained ever established in your true Self.

अध्याय १०

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।३९।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. और हे अर्जुन!

२. जो भी सब भूतों का कारण है, वह मैं ही हूँ,

३. कोई भी चर अचर मेरे से रहित नहीं है।

तत्व विस्तार :

देखो मेरी जान् कमला!

1. त्रिगुणात्मिका शक्ति परम की शक्ति है।

2. संसार में जो भी है, त्रिगुणात्मिका ही है।

3. त्रैगुण ही भगवान की प्रकृति के आसरे सम्पूर्ण संसार रचते हैं।

4. चर अचर, जड़ जंगम, सब इसी में आ जाते हैं।

5. त्रिगुणात्मिका शक्ति सबको त्रैगुण पूर्ण ही रचती है।

6. आत्म की सत्ता में आत्म से चेतना पाकर ही रचती है।

7. जीव को भगवान ने बुद्धि और मन दे रखा है।

8. जीव को भगवान ने साथ अहंकार भी दिया, जो केवल सम्बोधन मात्र था।

9. जीव ने मन और बुद्धि को तन के तद्‍रूप कर दिया।

10. यानि, चेतन अंश जड़ के तद्‍रूप हुआ और उसके आश्रित हो गया।

यानि, चेतन अंश, जड़ अंश तनो गुण पे इतराने लगा और तनो गुण गुमानी हो गया।

यह संग ही दिव्य को लौकिक बनाता है, वरना तुम भी केवल शुद्ध परम विभूति ही हो। तात्पर्य यह है कि :

1. यदि चेतन अंश आत्म के तद्‍रूप हो तो सब कुछ दिव्य होता है।

2. गुण तो सम्पूर्ण ही जो कहे हैं, दिव्य ही हैं, जीव के अहंकार के कारण वे आसुरी बन गये हैं।

किन्तु नन्हीं! यह सब जो कहा, तुम्हारे आन्तरिक अहं को मिटाने के लिये कहा। भगवान तो कह रहे हैं कि बुरे, अच्छे, दुष्ट, साधु, सन्त, सब वह आप ही हैं। तुम्हें इस सत्यता का भान ही तब होगा जब तुम स्वयं अपने मिथ्या आरोपित अहं को मिटाओगे और तनो तद्‍रूपता छोड़ दोगे।

नन्हीं! जड़ बुद्धि में जब चेतन अंश मिला तो बुद्धि में जागृति हुई। उस बुद्धि ने भूले से देह से संग कर लिया, वह देहात्म बुद्धि हो गई। इस देहात्म बुद्धि ने अपने तन को ‘मैं’ कहना आरम्भ कर दिया और मानो अपनी दिव्यता को गंवा दिया।

यदि यह बुद्धि देहात्म न बन कर परम आत्म के तद्‍रूप रहती, जहाँ से यह अपनी सत्ता पाई थी, तो:

1. आप जीवन में नित्य आनन्द में रहते।

2. आप जीवन में नित्य नि:संग ही रहते।

3. तब आप नित्य स्वरूप स्थित ही रहते।

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