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Chapter 10 Shloka 38
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।
I am the punishment accorded by the chastisers;
I am the strategy of those who seek victory;
I am the silence of those who desire secrecy
and I am the knowledge of the wise.
Chapter 10 Shloka 38
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।
The Lord now says:
I am the punishment accorded by the chastisers; I am the strategy of those who seek victory; I am the silence of those who desire secrecy and I am the knowledge of the wise.
A. “I am the punishment meted out by the chastiser.”
Thus every act of chastisement meted out to anyone, every punishment is the Lord Himself.
B. “I am the strategy adopted by those desirous of victory.”
1. The tactics employed by those who desire victory, are the Lord Himself.
2. The method used in order to attain anything is known as strategy.
3. The means used to attain victory over another is strategy.
4. Such strategy is often used to deceive the enemy.
5. In such strategy that which one sees is often deceptive.
The Lord says, “I am such strategy.”
C. “I am the silence adopted in secrecy.”
He is the silence which conceals every secret. Thus the silent reticence of every being is the Lord Himself.
D. “I am the knowledge of the wise.”
The Lord claims that the knowledge of those who possess wisdom is in fact He. Thus the ability of the wise to discern between the true and the false is the Lord Himself. So also, all knowledge of the Self attained by the man of wisdom is also the Lord.
Little one, the Lord is merely stating that He encompasses both the gross and the subtle spheres.
1. He is all that has appeared.
2. He is also all that which has not become manifest.
3. All that is contained in the mind and the intellect – in the subtle spheres, is the Lord.
4. He is the activity of all living beings.
5. There is nothing in the world which is not He.
Little one, you may claim your attributes, you may claim your body, mind and intellect – yet, the Lord is reminding you, “I am all these. These qualities are all Mine. Whether you wish to believe this fact or not, is entirely up to you.” Know also, that if you believe the Lord’s statement, you will become devoid of attachment and desire.
1. Then your conscious energy will be imbued with a divine power.
2. Your every deed will become a deed of the Lord.
3. Your intellect will become established in purity and truth. It will become the intellect of a sthit pragya.
4. Your knowledge will become divine knowledge.
5. You will become an Atmavaan and your body will become a divine manifestation.
All this will occur because you will then be devoid of the ‘I’. You will not remain limited by merely one body – all bodies will become yours. What will remain will be a unique and divine form which the world will call ‘Bhagwan’ or Lord.
अध्याय १०
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।३८।।
अब भगवान कहते हैं,
शब्दार्थ :
१. दण्ड देने वालों का मैं दण्ड हूँ,
२. जीतने की इच्छा रखने वालों की मैं नीति हूँ,
३. गोपनीयता तथा गुह्यता में मैं मौन हूँ,
४. ज्ञान वालों का ज्ञान मैं ही हूँ।
तत्व विस्तार :
क) भगवान कहते हैं कि, “दण्ड देने वालों का दण्ड मैं ही हूँ।”
‘जो भी दण्ड, कोई किसी को देता है, वह दण्ड भी मैं ही हूँ।’ हर सज़ा भगवान ही हैं, यह वह कह रहे हैं।
ख) “विजय चाहने वालों में नीति भी भगवान हैं।” यानि :
1. विजय अभिलाषी गण विजय को पाने के लिये जो नीति वर्तते हैं, वह नीति भी भगवान ही हैं।
2. किसी चीज़ को पाने के लिये जो युक्ति या तरीका अपनाया जाये, उसे नीति कहते हैं।
3. किसी पर विजय पाने के लिये विजय प्राप्ति का साधन ही नीति है।
4. नीति द्वारा अनेक बार शत्रुओं को धोखे में डाल दिया जाता है।
5. नीति में अनेक बार देखने में कुछ और दिखता है और वास्तविकता कुछ और होती है।
भगवान कहते हैं, ‘यह नीति भी मैं ही हूँ।’
ग) गुह्य बातों में मौन भगवान ही हैं।
यानि, जो छुपाने वाली बात होती है, उसे छुपाते हुए जो मौन धारण करते हैं, वह मौन भगवान ही हैं। हर जीव में जो छुपाव है, भगवान कहते हैं कि वह छुपाव वह आप हैं।
घ) “ज्ञानवान् लोगों का ज्ञान भी मैं ही हूँ।”
जितना भी ज्ञान ज्ञानीगण के पास है, भगवान कहते हैं, कि वह ज्ञान भगवान ही हैं। जो भी सत् असत् विवेक ज्ञानवान के पास होता है, या जो भी आत्मज्ञान ज्ञानियों के पास होता है, वह ज्ञान और आत्मज्ञान भी भगवान आप ही हैं।
नन्हीं! इस सब से यह समझ ले कि भगवान कह रहे हैं, सूक्ष्म तथा स्थूल जो भी है, वह आप हैं।
1. जो मूर्तिमान हो चुका है, वह भी वह आप हैं।
2. जो मूर्तिमान नहीं है, वह भी आप हैं।
3. सूक्ष्म में, मन बुद्धि में जो है, यह भी भगवान का है।
4. भूतों के कार्य कर्म भी वह आप हैं।
5. संसार में कुछ भी नहीं जो वह आप नहीं हैं।
नन्हीं! आप चाहे गुणों को अपना लें, अपने तन अपनी बुद्धि को अपना लें, किन्तु भगवान कहते हैं, ‘भाई! यह सब मैं ही हूँ। यह गुण सम्पूर्ण मेरे हैं, आगे तुम्हारी मर्ज़ी, तुम मानो या न मानो।’ यह भी समझ लो, यदि तुम भगवान की बात मान लो, तो तुम कामना और आसक्ति रहित हो जाओगी।
1. तुम्हारी चेतना रूपा शक्ति विभूति मात्र हो जायेगी।
2. तुम्हारा हर कर्म परम का कर्म हो जायेगा।
3. तुम्हारी यह बुद्धि स्थित प्रज्ञता पूर्ण हो जायेगी।
4. तुम्हारा ज्ञान भी दिव्य हो जायेगा।
5. तुम आत्मवान् बन ही जाओगी और तुम्हारा तन दिव्य हो जायेगा।
क्योंकि तुम अहं पूर्ण ‘मैं’ के रहित हो जाओगी, तब तुम्हारा एक तन नहीं रहेगा, पूर्ण ही तुम्हारे हो जायेंगे। तुम्हारा एक अलौकिक दिव्य रूप रह जायेगा, जिसे जहान ‘भगवान’ कहता है।