अध्याय १०
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्ति: श्रीर्वाक् च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा।।३४।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. सबको हरने वाला मृत्यु मैं हूँ
२. और आगे होने वालों की उत्पत्ति मैं हूँ,
३. नारियों में कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
तत्व विस्तार :
क) अब भगवान कहते हैं कि, ‘सबको हरने वाला ‘मृत्यु’ मैं हूँ। अर्थात् समष्टि या सामूहिक मृत्यु का कारण भी मैं ही हूँ। व्यक्तिगत प्राणों का हरण करने का कारण भी मैं ही हूँ।’
ख) आगे होने वालों में ‘उद्भव’ भगवान कहते हैं, कि वह ही हैं।
– ‘होने वालों’ का उत्पत्ति स्थान भगवान स्वयं हैं।
– जन्म का मूल भी वह आप ही हैं।
– भगवान ही प्राणों को तन से जोड़ते हैं।
– भगवान ही सम्पूर्ण उत्पत्ति का कारण हैं।
ग) फिर भगवान कहते हैं कि नारियों में जो सहज गुण होते हैं, वे सम्पूर्ण गुण भगवान आप हैं।
वे गुण बताते हुए भगवान कहते हैं कि ये सब वह आप ही हैं।
1. ‘कीर्ति’ – चहुँ ओर गुण और धर्म की प्रख्याति को कहते हैं।
2. ‘श्री’ – आभा, उज्ज्वल नाम तथा समृद्धि को कहते हैं।
3. ‘वाक्’ – प्रकाश करने वाली वाणी, चैन देने वाली वाणी तथा मृदुल तथा प्रेम पूर्ण वाणी को कहते हैं।
4. ‘स्मृति’ – बीते हुए अनुभवों की याद को कहते हैं।
5. ‘मेधा’ – वह बुद्धि है जो ज्ञान को जीवन में धारण करती है।
6. ‘धृति’ – साहस, सहिष्णुता और संयम को कहते हैं।
7. ‘क्षमा’ – किसी के अपराध और अवगुण को चित्त में न धरने को कहते हैं।
भगवान कहते हैं ‘स्त्री के ये सातों गुण मैं ही हूँ।’
नन्हीं! ये गुण ही नहीं, सम्पूर्ण सद् गुण हैं। जहाँ देखो वहीं पर सीस झुका दो, वे गुण भगवान आप ही हैं। जिस तन राही गुण बहते हैं, वहाँ से मानो भगवान ही बह रहे हैं।
ध्यान रहे नन्हीं! जिस नारी में ये गुण नित्य सुसज्जित हैं, उसे कोई और श्रृंगार करने की क्या ज़रूरत है?