अध्याय १०
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्।।३२।।
अब भगवान कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ,
२. विद्याओं में अध्यात्म विद्या मैं ही हूँ,
३. (और) विवाद करने वालों का वाद मैं ही हूँ।
तत्व विस्तार :
क) भगवान ने इसी अध्याय के बीसवें श्लोक में कहा था कि ‘भूतों का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ’ यहाँ कह रहे हैं कि ‘सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। सम्पूर्ण जड़, चेतन सृष्टि मैं ही हूँ और सम्पूर्ण प्रकृति की रचना भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण रचना का आदि, स्थिति तथा लय स्थान मैं ही हूँ।’
ख) भगवान कह रहे हैं कि “सम्पूर्ण विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ।”
अध्यात्म विद्या :
1. आत्म अनात्म विवेक है।
2. जड़ चेतन विवेक है।
3. जीव को आत्मवान् बना देती है।
4. जीव को भगवान बना सकती है।
5. जीव को स्वरूप स्थित करवा सकती है।
6. जीव को नित्य आनन्द पूर्ण स्थिति दिला सकती है।
इसे जान कर कुछ भी जानना बाकी नहीं रह जाता। सो भगवान कहते हैं, ‘विद्याओं का राजा, अध्यात्म विद्या मैं ही हूँ।’
ग) “विवाद करने वालों का वाद मैं ही हूँ।”
1. वाद, ध्वनि को कहते हैं।
2. वाद, केवल सत्त्व को जानने के लिए किये जाने वाले विचार विमर्श को कहते हैं।
3. वाद, केवल सत्य को जानने के लिए किये जाने वाले तर्क वितर्क को कहते हैं।
4. वाद, केवल सत्त्व को जानने के लिए किये जाने वाले परिप्रश्न को कहते हैं।
5. वाद, न्याययुक्त वाद विवाद को कहते हैं। भगवान कहते हैं, ‘यह वाद मैं ही हूँ।’