अध्याय१०
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय:।।२५।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. महर्षियों में मैं भृगु हूँ,
२. वाणियों में मैं अक्षर हूँ।
३. यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ,
४. स्थावरों में मैं हिमालय हूँ।
तत्व विस्तार :
क) भगवान कहते हैं, “महर्षियों में मैं भृगु महर्षि हूँ।”
भृगु महर्षि सम्पूर्ण ऋषियों में श्रेष्ठ और अधिक तपस्वी माने जाते हैं। वे त्रिकालदर्शी भी हैं और आगामी घटनाओं के पूर्णज्ञाता भी।
ख) फिर भगवान ने कहा, “वाणियों में मैं अक्षर हूँ।”
यानि, वाणी में भगवान वह शब्द हैं जो अक्षर आत्म तत्व की कहता है। वाणी में ओम् (ॐ की सविस्तार व्याख्या के लिए माण्डूक्योपनिषद् देखिए) ही सर्वोत्तम अक्षर माना गया है। वाणी में जो अक्षर ओम् है, उसे पूर्ण रूप से समझ लेने तथा जीवन में मान लेने से जीव स्वरूप में स्थित हो सकता है।
ग) भगवान कहते हैं, “यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ।”
जप यज्ञ का अर्थ है:
1. भगवान के नाम का बार बार गुण गाना।
2. मन ही मन भगवान से बार बार प्रार्थना करना।
3. मन ही मन भगवान के गुणों की सराहना करना।
4. जप यज्ञ में जीव निरन्तर भगवान के साक्षित्व में रहता है।
5. जप यज्ञ में जीव जो भी करता है, भगवान के साक्षित्व में करता है।
6. जप यज्ञ करते हुए जीव जीवन में भगवान के साक्षित्व में निष्काम कर्म ही करेगा।
7. जीव का जीवन यज्ञमय हो जायेगा।
8. जीव का जीवन श्रेष्ठतम हो ही जायेगा।
9. जीव जीवन में भगवान के समान ही कर्म करने लगेगा।
इस कारण यह यज्ञ सर्वोत्तम माना गया है।
घ) अब भगवान ने कहा, “स्थावरों में मैं हिमालय हूँ।”
यानि, अचल रहने वालों में नित्य अचल रहने वाला हिमालय पर्वत भगवान ही हैं।
नन्हीं! ध्यान से समझ! भगवान अपनी विभूतियाँ बताते हुए इन सब के तद्रूप हो रहे हैं और अपनी अखण्डता तथा अद्वैत दर्शा रहे हैं। यदि जीव इन्हें मान ले तो इस भाव को पा लेगा कि सब वासुदेव ही हैं।