अध्याय १०
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतय:।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।१६।।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।१७।।
अर्जुन कहने लगे भगवान को, आप अपने आपको स्वयं जानते हो, इसलिये :
शब्दार्थ :
१. जिन जिन विभूतियों से इन लोगों को व्याप्त करके आप स्थित हो,
२. उन अपनी दिव्य विभूतियों को,
३. पूर्णता से आप ही कहने योग्य हो।
४. हे योगेश्वर! सदा चिन्तन करता हुआ,
५. मैं आपको कैसे जानूँ?
६. और हे भगवन्! किन किन भावों से
७. आप मुझसे चिन्तन किये जाने योग्य हैं?
तत्व विस्तार :
अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि, ‘आप ही अपने आपको जानते हो, आप ही स्वयं मुझे बताएँ कि आप इस संसार में किन किन विभूतियों में विराजमान हैं?”
1. मैं आपको जानना चाहता हूँ, कैसे जानूँ?
2. मैं आपके कौन से गुण गाऊँ जिनकी राह से आपको समझ सकूँ?
3. किस किस विषय को आपकी विभूति रूप देखूँ?
4. किस किस विषय में मुझे आपका दीदार हो सकता है?
5. मैं आपका निरन्तर चिन्तन किन विभूतियों के राही करूँ?
6. मैं आपकी सर्वव्यापकता को कैसे समझूँ?
7. हे योग के पति, हे योगेश्वर! मैं आप ही से योग चाहता हूँ। आप ही कहें यह योग कैसे सफल हो?
8. मैं किन किन भावों में आपका चिन्तन करूँ कि अब आपसे मिलन हो जाये?
मैंने जान लिया जो आपने कहा वह सत्य है और आप ही परम लक्ष्य हो, किन्तु आप ही मुझे अपनी राह बता सकते हो और आप ही मुझे यह भी बता सकते हो कि किन किन विभूतियों में आपको ढूँढूँ और किन भावों में आपका चिन्तन करूँ।
सो हे करुणा पूर्ण! आप ही अब राह दिखाओ, तब ही तो आप तक आ सकूँगा।’
नन्हीं! अर्जुन ने यह जान लिया कि भगवान को जानने और उनसे योग के लिए
क) निरन्तर चिन्तन अनिवार्य है।
ख) उनके गुणों का जीवन में अभ्यास अनिवार्य है।
ग) उनके जैसा दृष्टिकोण होना अनिवार्य है।
घ) जीवन के हर पहलू में उनका साक्षित्व अनिवार्य है।
ङ) तन से निरासक्त होना अनिवार्य है।
च) जीवन में निष्काम भाव से रहना अनिवार्य है।
किन्तु परम का अखण्ड चिन्तन करने के लिये किस भाव में रहा जाए और किस किस विभूति में भगवान को देखा जाए, यह जानने के लिए अर्जुन भगवान से ही पूछ रहे हैं।