अध्याय १०
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:।।१४।।
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।१५।।
अर्जुन आगे कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे केशव! आप जो मुझे कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ।
२. हे भगवान! आपके व्यक्तित्व को न दानव जानते हैं, न देवता गण ही जानते हैं।
३. हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर!
४. देवों के देव तुम ही हो।
५. जगत्पति, परम पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने द्वारा आपको जानते हो।
तत्व विस्तार :
ब्रह्म स्वरूप वर्णन :
वास्तव में भगवान का स्वरूप :
1. अनिर्वचनीय है, वह वाक् बधित नहीं हो सकता।
2. अचिन्त्य है।
3. अतीन्द्रिय होने के कारण ग्रहण नहीं हो सकता।
4. अतुल्य है; उसकी कोई उपमा नहीं।
5. असीम है, सीमा बधित ससीम शब्द उसे क्या बाँधेगा?
ऐसे को समझना बहुत ही कठिन है, इस कारण अर्जुन ने कहा, “हे भगवान अपने आपको आप स्वयं जानते हैं।” आकार सहित निराकार को समझना बहुत कठिन है। एक ससीम को असीम समझना बहुत कठिन है।
अर्जुन कहते हैं, “आप जो कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ, किन्तु आपको न असुर जानते हैं न देवता ही जानते हैं। आपकी बात तो मैं जानता हूँ, किन्तु आपको जान लेना असम्भव है। अपने आपको आप स्वयं ही जानते हैं।”
अर्जुन आगे कहते हैं, ‘जो आपने कहा, वह मैं श्रद्धा के बल से मानता हूँ, किन्तु जो आप कहते हैं वह बुद्धि के परे की बात है।’
क) आत्मा में स्थित के चिन्ह जीवन में मिलते हैं।
ख) भागवत् तत्व में स्थित का प्रमाण जीवन में मिलता है।
ग) भागवत् तत्व में स्थित का जीवन सारांश शास्त्र कथित वाक्यों से तोला जा सकता है।
घ) दीर्घ काल के सम्पर्क के पश्चात् जीव कुछ कुछ अनुभव भी कर सकते हैं।
उस परम तत्व को जान कोई नहीं सकता, वह अपने आप को स्वयं ही जानते हैं। उनकी आंतरिक अवस्था को उनके जीवन में प्रमाणित गुणों तथा गुण संग रहितता से ही जाना जा सकता है।
जीवन प्रमाण :
क) किसी की क्षमा का प्रमाण उसके जीवन में क्षमा के प्रमाणों से ही मिल सकता है।
ख) उनकी उदारता, उदासीनता, तद्रूपता, प्रेम इत्यादि का भी प्रमाण उनके जीवन राही मिलता है।
ग) उनकी यज्ञ स्वरूपता, तप स्वरूपता तथा दान स्वरूपता का भी प्रमाण उनके जीवन से ही मिलता है।
घ) उनकी धर्म परायणता तथा कर्तव्य परायणता का भी प्रमाण उनके जीवन से ही मिल सकता है।