अध्याय १०
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढ़: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते।।३।।
अब भगवान, उनके इस तत्व रूप को जानने का फल बताते हुए कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोक महेश्वर स्वरूप जानता है,
२. वही मनुष्यों में ज्ञानवान् है,
३. वह सब पापों से छूट जाता है।
तत्व विस्तार :
परम पुरुष पुरुषोत्तम को जो
क) सामने देख कर भी अजन्मा जानता है,
ख) साकार देख कर भी निराकार जानता है,
ग) माया बधित देख कर भी मायापति जानता है,
घ) काल बधित देख कर भी कालातीत जानता है,
ङ) गुण बधित को गुणातीत, फिर निर्गुणिया पहचानता है,
च) तनो आश्रित, तनो वासी और तनो बधित को इस तन से परे जानता है,
छ) साधारण से जीव में दिव्य विलक्षणता को पहचानता है,
वह सम्पूर्ण पापों से तर जाता है।
निर्गुणिया के प्रकट गुण देख कर वह जानता है कि वह :
1. नितान्त संग रहित होने के कारण गुण रहित है।
2. सबकी ओर समदृष्टि होने के कारण समत्व में स्थित है।
3. नित्य निर्लिप्त है।
4. नित्य उदासीन है।
5. अहं रहित है।
6. यज्ञ स्वरूप ही है।
7. नित्य तृप्त आप है।
8. सम्पूर्ण दैवी गुण सम्पन्न आप है।
9. नित्य अध्यात्म का प्रमाण आप है।
10. सब कुछ करके भी जो कुछ न करे, ऐसा नित्य अकर्ता आप है।
11. ज्ञान विज्ञान रूप, अध्यात्म के सारांश का भी प्रकाश है। हर साधक का लक्ष्य, परम ब्रह्म का स्वभाव अध्यात्म वह आप है।
परम को जानने वाले की स्थिति :
ऐसे साकार, निराकार रूप का जीवन मानो उस अध्यात्म की व्याख्या है। जो ऐसे को समझ ले, जो ऐसे को मान ले, जो निरन्तर उसी का बना रहे और जीवन में योग का प्रमाण दे, वह क्या पाप कर सकेगा? वह तो तन ही उसको दे देता है। वास्तव में अपने तन को त्याग कर, वह स्वयं आत्मवान् बन जाता है। तब वह भगवान का सजातीय बन जाता है।