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Chapter 9 Shloka 32
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।
O Arjuna! Women, Vaishyas, Shudras
and others who belong to iniquitous races
attain the Supreme Goal,
having taken refuge in Me.
Chapter 9 Shloka 32
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।
Describing the immense power of exclusive devotion, the Lord says:
O Arjuna! Women, Vaishyas, Shudras and others who belong to iniquitous races attain the Supreme Goal, having taken refuge in Me.
Lord Krishna says that if women, prostitutes, Vaishyas and Shudras fix their mind upon the Lord exclusively, even they can ascend to the Supreme Goal. He has specially mentioned these classes because they have fewer opportunities for study, meditation and other means to attain knowledge. They remain engrossed in other spheres of action and are dependent on others. However, the Lord proclaims that ‘If they worship Me incessantly and dwell constantly in My presence, they too can attain the Supreme Goal.’ Let alone these, if even those mortals who are steeped in sin pursue the path of exclusive devotion and take refuge in the Lord, they too can attain the final goal.
Paap Yoni (पाप योनि)
1. The class of people in whom demonic attributes predominate.
2. The category of a low caste chandaal.
3. The category of an evil doer.
4. Evil, merciless, and niggardly class.
5. The class that perpetrates harm on others.
6. Pretenders, deceivers and those who engross themselves in wicked deeds.
7. Thieves, rebels and traitors.
8. Carping and critical people, full of hatred.
9. Venomous people who indulge in despicable behaviour.
Such are those who are classified as paap yoni.
Little one, the Lord says, “Even if such evil doers take the Lord’s support, they can attain the highest goal of man.”
Women, Vaishyas and Shudras have not been included in the ‘sinful categories’ of mankind. The Lord mentions them along with the latter because such classes normally:
a) lack in education;
b) do not have the time for concentration on the Truth;
c) are dependent on others;
d) do not possess strength or power;
e) cannot do much through their own initiative;
f) remain ever engrossed in their daily routine.
The woman and the Vaishya are ever engaged in the service of others. It would indeed be a sin to include them in the ‘sinful categories’! They ever strive for the other’s well-being and benefit. The Lord is simply trying to clarify in this shloka, that:
1. It is not only the prerogative of Brahmins to worship the Lord.
2. Worship is not merely the prerogative of the learned.
3. One must not believe that only the strong and powerful can attain the Lord.
Caste and creed are of no consequence in the measure of worthiness to attain the Lord. The only measure required is to seek refuge in Him alone. What you are, what you may have been in the past, what you will be in the future have no bearing on such worship of the Lord. Nor is such worship a matter of birthright.
Little one,
a) One who is proud of familial superiority cannot ascend to the Lord.
b) One who possesses pride of knowledge, cannot attain the Lord.
c) One who takes pride in his personal superiority cannot attain the Lord.
d) One who is proud of his righteousness is also unable to attain the Lord.
e) Those who distance themselves from the unrighteous cannot attain true righteousness.
f) They who avoid proximity with those who reject them cannot learn how to love.
g) Those who evade the insincere cannot learn sincerity.
h) Those who keep away from the tyrannical cannot learn forbearance.
i) One cannot attain knowledge simply by avoiding the ignorant.
j) One who avoids the sinful can never learn forgiveness.
k) Those who renounce the critical and carping cannot escape denunciation.
Little one, those who are proud of their superiority and abandon others, considering them to be inferior, cannot be classified as sadhus or noble individuals. It is their ego that distances them from others.
The true sadhu embraces even those who are considered to be evil or wicked, so that:
1. He can prove his own integrity to himself.
2. He can strengthen the divine qualities within himself.
3. He can protect others from the evil intents of those wicked tyrants.
The true sadhu does not do all this consciously. Such conduct is a natural outcome of his basic nature.
Little one, I shall tell you another truth – listen carefully:
a) It is comparatively easy for an ordinary person to attain the Lord rather than for one who takes pride in his goodness.
b) It is easier for a drunkard to become a Mahatma than for one who is drunk with the pride of self-esteem.
c) It is easy for an ignorant person or one known for his negative behaviour to become humble; who can teach humility to one who is proud of his knowledge?
d) It is extremely difficult to point out any lacunae to one who considers himself to be superior.
e) Even a drinker of alcohol, when he is sober again, can be acknowledged as a sadhu, but those who drink the alcohol of subtle pride can never be brought to a consciousness of the Truth. They are completely imbued with the quality of tamas. They can only talk, they cannot really do anybody any good. Their existence is futile.
अध्याय ९
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।
भगवान अनन्य भक्ति के बल को समझाते हुए कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र आदि तथा पाप योनियों वाले भी हों,
२. वे भी मेरा आश्रय लेकर,
३. परम गति को पाते हैं।
तत्व विस्तार :
यहाँ भगवान कहते हैं कि स्त्री, वैश्य तथा शूद्र भी भगवान को अनन्य भाव से स्मरण करें, तो वे भी तर जाते हैं। इन तीनों के नाम इसलिये नहीं लिये क्योंकि ये पाप योनियाँ हैं। ये नाम तो इस कारण लिये हैं क्योंकि इन्हें पठन, ध्यान तथा अन्य ज्ञान उपार्जन की फ़ुर्सत कम ही मिलती है। ये तो अपने काज कर्म में ही नियुक्त रहते हैं। ये लोग पराश्रित होते हैं। भगवान कहते हैं कि ये लोग भी गर निरन्तर मेरा भजन करें और ये लोग गर निरन्तर मेरे साक्षित्व में जीवन व्यतीत करें तो ये भी परम गति को पा लेते हैं। इनका ही क्या, अति पाप योनि को पाकर भी यदि कोई मेरा आश्रय ले ले, तो वह परम गति को प्राप्त होता है।
पाप योनि का अर्थ है :
क) असुरत्व गुण प्रधान योनि।
ख) चाण्डाल की योनि।
ग) दुराचारी की योनि।
घ) दुष्ट, निर्दयी, संगदिल की योनि।
ङ) सबका अनिष्ट करने वालों की योनि।
च) पाखण्डी, धोखेबाज़, कुटिल कर्म करने वालों की योनि।
छ) चोर, विद्रोही, गद्दार की योनि।
ज) घृणापूर्ण, निन्दक तथा तिरस्कार करने वालों की योनि।
झ) वैमनस्यपूर्ण तथा भ्रष्ट आचार वाले लोगों की योनि।
ये सब पाप योनियाँ ही हैं।
नन्हीं! भगवान कहते हैं, ऐसे दुराचारी भी यदि भगवान का आश्रय लेते हैं, तो परम गति को पाते हैं।
नन्हीं! स्त्री, वैश्य या शूद्रों को पाप योनि नहीं कहा, उनका नाम इसलिये लिया है क्योंकि वे :
1. बहुत ज्ञानवान् नहीं होते।
2. उन्हें तत्व चिन्तन के लिये समय ही नहीं मिलता।
3. वे पर आश्रित होते हैं।
4. वे बहुत बलवान भी नहीं होते।
5. वे स्वेच्छा से बहुत कुछ नहीं कर सकते।
6. वे तो नित्य कार्य कर्मों में तल्लीन रहते हैं।
नारी तथा वैश्य तो सदा ही औरों की सेवा करते हैं। उन्हें पाप योनि कहना तो पाप ही होगा। वे तो परहितकारी ही होते हैं। यहाँ भगवान यह कहना चाह रहे हैं कि यह ज़रूरी नहीं कि केवल :
क) ब्राह्मण ही पूजा कर सकते हैं,
ख) ज्ञानवान् ही पूजा कर सकते हैं,
ग) बलवान् ही पूजा कर सकते हैं या भगवान को पा सकते हैं।
भगवान को पाने के लिये जाति या गोत्र कोई अर्थ नहीं रखता। भगवान को पाने के लिये केवल भगवान के शरणापन्न होने की आवश्यकता है। तुम क्या हो, तुम क्या थे, तुम क्या होवोगे, इसकी बात नहीं है, यह जन्म सिद्ध अधिकार की बात नहीं है।
नन्हीं! सच पूछो तो :
क) जिन्हें अपनी कुल श्रेष्ठता का गुमान है, वे भी भगवान को नहीं पा सकते।
ख) जिन्हें अपने ज्ञान का गुमान है, वे भी भगवान को नहीं पा सकते।
ग) जिन्हें अपनी श्रेष्ठता का गुमान है, वे भी भगवान को नहीं पा सकते।
घ) जिन्हें अपनी साधुता का गुमान है, वे भी भगवान को नहीं पा सकते।
ङ) जो असाधुओं से दूर रहते हैं, वे साधु नहीं हो सकते।
च) जो ठुकराने वालों से दूर रहते हैं, वे प्रेम करने वाले नहीं हो सकते।
छ) बेवफ़ाओं से दूर रहने वाले वफ़ा नहीं सीख सकते।
ज) अत्याचारियों से दूर रहने वाले सहनशील नहीं हो सकते।
झ) अज्ञानियों से दूर रहने पर कोई ज्ञानवान् नहीं हो सकता।
ञ) पाप करने वालों से दूर रहने वाले क्षमावान् नहीं हो सकते।
ट) निन्दक लोगों का जो त्याग करते हैं, वे अपमान से परे नहीं हो सकते।
नन्हीं! जिन्हें अपनी श्रेष्ठता का गुमान है और उस गुमान के कारण जिसे वे अश्रेष्ठ मानते हैं, उसे छोड़ देते हैं, वे वास्तविक साधु नहीं होते। केवल अहंकार ही अपने आपको बुरों से भी दूर करता है।
वास्तविक साधु तो बुरे को अपने अंग लगाता है ताकि,
1. वह स्वयं अपने सतीत्व का प्रमाण पा सके।
2. वह स्वयं अपने में भागवत् गुणों को पुष्टित कर सके।
3. उस बुरे या अत्याचारी से अन्य लोगों को बचा सके।
वास्तविक साधु यह सब सोच विचार कर नहीं करता, यह तो उसका सहज स्वभाव है।
नन्हीं! एक बात कहूँ; ध्यान से सुनो!
क) एक साधारण जीव के लिये भगवान को पाना आसान है, साधुता गुमानी के लिये बहुत कठिन है।
ख) एक शराबी के लिये महात्मा बन जाना आसान है, अपनी साधुता की शराब में मदमस्त को भगवान नहीं मिलते।
ग) एक अज्ञानी और दुराचारी तो झुक भी सकता है, परन्तु ज्ञान दम्भी को कोई कैसे झुकाये?
घ) जो अपने आपको श्रेष्ठ मानता है, उसकी ग़लती उसे कौन बता सकता है?
ङ) स्थूल शराब पीने वाले तो जब होश में आते हैं, उन्हें सच्चा साधु मान भी सकते हैं; किन्तु सूक्ष्म गुमान रूप मद पीने वाले तो होश में आते ही नहीं। सूक्ष्म गुमान रूप मद पीने वाले तो पूर्ण रूप से तामसिक लोग होते हैं। वे किसी का हित नहीं कर सकते, वे तो केवल बातें कर सकते हैं। वे तो केवल व्यर्थ ही जीते हैं।