अध्याय ९
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्तयुपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।२६।।
देख! कितनी सुन्दर बात कही भगवान ने।
शब्दार्थ :
१. पत्ता, पुष्प, फल, जल, जो भी वह मेरे लिये प्रेम से अर्पण करता है,
२. उस प्रयत्नशील, योग युक्त आत्मा के इस प्रेम पूर्ण अर्पण को
३. मैं खाता हूँ, यानि ग्रहण करता हूँ।
तत्व विस्तार :
भगवान समझाते हैं कि भक्ति पूर्ण श्रद्धा से जो भी मुझे मिलता है,
क) वही तो मेरा अन्न है,
ख) उस भक्ति से ही तो मैं पलता हूँ,
ग) उस भक्ति पूर्ण देन से ही तो मैं पुष्टि पाता हूँ।
घ) उसी के फल स्वरूप भक्तों का योग क्षेम करता हूँ।
उसी प्रेम उपहार के राही भगवान में श्रद्धा रखने वाले :
1. केवल निष्काम जीव ही होते हैं।
2. केवल यज्ञपूर्ण जीव ही होते हैं।
3. केवल देने वाले ही होते हैं, उन्हें अपने लिये कुछ नहीं चाहिये। यह नियम है, यही सत् है।
जो भगवान से प्रेम करते हैं, जो भगवान में श्रद्धा रखते हैं,
क) वे अपना आप मिटा कर वहाँ परम का राज्य चाहते हैं।
ख) वे अपनी हस्ती मिटा देना चाहते हैं।
ग) वे अपना तन भगवान को दे देना चाहते हैं।
घ) वे अपने तन से उठना चाहते हैं।
ङ) उनके पास जो होगा, वे भगवान के अर्पित करेंगे ही।
च) क्योंकि भगवान में श्रद्धा है, वे यथा सामर्थ भागवत् सेवा करेंगे ही।
गर वे फूल चढ़ाना महा उच्चतम मानते हैं तो फूल चढ़ायेंगे। भगवान कहते हैं, “जो भी श्रद्धा से चढ़ाओगे, बस मेरे लिये काफ़ी है, मैं उसी को खाता हूँ।”
वास्तव में आपके उपहार का मूल्य आपकी श्रद्धा ने धरना है। भगवान वस्तु के भूखे नहीं, भगवान प्रेम के भूखे हैं। श्रद्धा है तो चाहे अपना सर्वस्व उन्हें दे दो। श्रद्धा नहीं, तो वह आपसे कुछ नहीं लेना चाहते। जितना आप देंगे भी, उससे अधिक ही आपको मिल जायेगा।
नन्हीं! अपने सहज जीवन के कर्म रूपा पत्ते दे दो। अपने सहज जीवन में शुभ कर्म रूप पुण्य दे दो, या अपने जीवन के ही प्राण रूप जल को दे दो। कुछ दो तो सही! जो भी दे सकते हो, वह भगवान को दे दो। वास्तव में तो सब भगवान का ही है, तुमने तो केवल उसी का उसी को लौटाना है। किन्तु यदि भक्ति भाव से दोगे तो वह लेंगे, वरना वह कुछ नहीं लेते।