Chapter 9 Shlokas 23, 24

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।२३।।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।२४।।

O Arjuna! Those devotees, who are endowed with faith

and worship other gods, they too worship Me.

However, they do not worship Me in the proper way,

for I am the Enjoyer and the Lord of all sacrifice,

but they do not know Me in reality and thus fall

(i.e. become enmeshed in the cycle of birth and death).

Chapter 9 Shlokas 23, 24

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।२३।।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।२४।।

The Lord now says:

O Arjuna! Those devotees, who are endowed with faith and worship other gods, they too worship Me. However, they do not worship Me in the proper way, for I am the Enjoyer and the Lord of all sacrifice, but they do not know Me in reality and thus fall (i.e. become enmeshed in the cycle of birth and death).

Little one, once the intense feeling of love for the Lord is aroused:

a) then there is no place for other desires;

b) the mind no longer seeks anything else in the world;

c) the yagya, devoid of any oblation, commences.

That Supreme Sadhak:

a) desires to annihilate the ego;

b) will no longer seek body establishment for he has renounced the body;

c) will no longer desire recognition from the world, because he seeks to transcend name and fame.

­­–  What can the world give to him who gives all to the world?

­­–  How can such a one seek the world from the Lord to whom he has given of himself completely?

­­–  Nothing remains for him to seek. He wishes only to give his all to the Lord.

One who seeks to become an Atmavaan

1. He has no expectations from the deities – what can the deities give to him?

2. What will he gain through the accumulation of prowess? He is endeavouring to give away whatever he already possesses.

3. How can he desire anything else? He has desired the Lord Himself.

4. What will he do by attaining happiness when he has relinquished the mind that could experience that happiness?

Such a yagya is devoid of any oblation, there is no external offering. In this gyan yagya the devotee’s offering to the fire of knowledge are his own traits.

The Lord now says, “Those who worship other deities with that same faith, worship Me in reality – even though that worship is devoid of any formal approach. For I am the Supreme partaker of all yagya, even those yagyas that are offered to the various gods and goddesses; and I am the Lord of all. I give to them whatsoever they seek from those deities.”

The Lord also clarifies, “Whoever worships those deities with faith, receives the desired fruit of that worship through that deity as pre-ordained by Me.” The Lord also says, “These people who worship the Devtas, stumble on the way because they do not know Me, the Atma Self, in essence.”

Little one, the Lord is reiterating that it is He who is the partaker of all yagya. However, foolish souls are ignorant of this and do not offer their actions performed as yagya to Him.

It is due to this ignorance that such people return to the cycle of birth and death. It is the Lord Himself who also grants the fruits of worship of the deities, yet those who worship these deities repeat their mistake again and again. The Lord said in Chapter 7, shloka 22; such people, desirous of fruit through their worship of the gods and goddesses, receive only the fruit that I have previously ordained.” Then why not perform Brahm Yagya in the first place and attain freedom from the cycle of birth and death?

अध्याय ९

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।२३।।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।२४।।

भगवान अब कहते हैं, हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो भक्त अन्य देवताओं को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं,

२. पर वे अविधि पूर्वक पूजा करते हैं,

३. क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ,

४. परन्तु वे मेरे को तत्व से नहीं जानते,

५. इस कारण गिर जाते हैं। (यानि जन्म मृत्यु के चक्र में पड़ जाते हैं।)

तत्व विस्तार :

नन्हीं! याद रहे, परम ध्यान, परम चाह जब उठ आये तब :

क) अन्य कामना का प्रश्न ही नहीं उठता।

ख) जहान में कुछ और मिले, यह मन चाहता ही नहीं।

ग) सामग्री रहित यज्ञ आरम्भ होता है।

ऐसा परम साधक,

1. अहं मिटाना चाहता है।

2. वह तन की स्थापना क्या चाहेगा, वह तो तन से उठना चाहता है।

3. वह जग से मान क्या चाहेगा, वह तो मान से उठना चाहता है।

4. जग उसको क्या दे सकता है! वह स्वयं सब जग को दे देता है।

5. भगवान से वह जग क्या माँगे, वह अपना आप ही भगवान को दे देता है।

6. उसके पास तो माँगने को कुछ रहा ही नहीं। वह तो अपना सर्वस्व भगवान को दे देना चाहता है।

आत्मवान् जो बनना चाहता है,

क) वह देवताओं को क्या ध्यायेगा, देवता उसे क्या दे सकते हैं?

ख) वह शक्ति पाकर क्या करेगा? उसके पास जो है, वह तो उसे भी दान कर देता है।

ग) वह और कुछ चाह कर क्या करेगा, उसने तो भगवान को चाहा है।

घ) वह सुख पाकर क्या करेगा, वह तो सुख पाने वाले मन को भी छोड़ रहा है।

यह समिधा रहित यज्ञ है, जहाँ बाह्य सामग्री का कोई सम्बन्ध नहीं। वह तो ज्ञान रूपा यज्ञ में अपनी आहुतियाँ दे रहा है।

अब यहाँ भगवान कहते हैं कि, “जो लोग उसी श्रद्धा से अन्य देवताओं को पूजते हैं; वह भी अविधिवत् वास्तव में मुझे ही पूजते हैं। क्योंकि वह इन देवी देवताओं के नाम पर जो यज्ञ करते हैं, उनका भी भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ। वे लोग इन देवी देवताओं से जो कुछ माँगते हैं, वह भी उन्हें मैं ही देता हूँ।” भगवान ने यह भी कहा कि, “श्रदा से जो देवता का पूजन करता है, वह उस देवता से मेरे द्वारा विधान किये वांछित फल को पाता है।” भगवान कहते हैं कि, “ये देवता उपासक लोग क्योंकि मुझ आत्म स्वरूप को तत्व से नहीं जानते हैं, इस कारण राहों में गिर जाते हैं।”

नन्हीं यहाँ भगवान इतना ही कह रहे हैं कि, ‘वास्तव में सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता मैं ही हूँ; किन्तु मूर्ख लोग यह न जानते हुए, मुझे अपना यज्ञ अर्पित नहीं करते हैं।’

बस नन्हीं! इतनी सी बात के कारण वे पुन: लौट आते हैं। देवी देवताओं के पूजन का फल भी तो भगवान ही देते हैं, फिर भी देवी देवाताओं का पूजन करने वाले भूल कर बैठते हैं। सोच तो इस बात की है कि भगवान ने अध्याय 7 श्लोक 22 में कहा कि, ‘ऐसे फल चाहुक सम्पूर्ण देवी देवताओं को ध्याकर फल वही पाते हैं जो मैंने पहले ही विधान किया होता है।’ तो क्यों न पहले ही ब्रह्म यज्ञ कर लें और जन्म मरण के चक्र से छुटकारा पा लें?

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