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Chapter 9 Shloka 22
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।
Those devotees, who are established in Me alone
with one exclusive thought, who constantly
think of Me and worship Me, I personally attend
to the protection of the yoga of those souls
who are thus ever united with Me.
Chapter 9 Shloka 22
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।
Those devotees, who are established in Me alone with one exclusive thought, who constantly think of Me and worship Me, I personally attend to the protection of the yoga of those souls who are thus ever united with Me.
Ananya (अनन्य)
One-pointed faith, one with a single focus of faith, absorbed in one, indivisible.
The Lord says, “I personally attend to the protection of yoga of those whose concentration is upon Me alone.”
Little one, those who keep their mind focused incessantly on the Atma:
a) They constantly offer all their deeds to the Lord.
b) They therefore perform all actions devoid of any desire for their fruit.
c) All their deeds are performed in complete selflessness and without motive.
d) Their life becomes an unbroken sequence of yagya.
e) They perform deeds that are for universal benefit and for the welfare of the maximum number.
f) They use their body, mind and wealth for the good of others.
g) They do everything for the establishment of others.
Just consider, who looks after such people in their daily life? How does such a one go about the task of self-sustenance?
The Lord clarifies, “I personally attend to the yogakshema (योग क्षेम) of such a noble soul.” This can have two meanings, both of which are correct, because it is indeed the Lord who attends to both the tasks.
Yogakshema of sadhana or spiritual practice
The Lord Himself protects the sadhana and the bliss derived thereof of such devotees who dwell incessantly in thoughts of Him. He gives them complete satiation. It could be said that such devotees gain indifference towards their personal selves as a consequence of their constant devotion. They abide in unalloyed bliss. The Lord Himself ensures their yogakshema.
Little one, the protection of yoga of a spiritual seeker would be ensured only if he receives such opportunities in which he could strengthen his practice of yoga.
Ordinarily, divine attributes are nourished by adversity and divine qualities can be practised in unfavourable circumstances. So one can say that the Lord gives adversity to the spiritual aspirant in order to grant him the opportunity to ensure his yoga.
You must not however deduce from this, that sadhana is not possible in favourable circumstances. Actually sadhana can progress only in a positive atmosphere and with a joyous heart. One who is unaffected by adversity is truly happy and can advance in spiritual practice.
A devotee dances with joy upon receiving this assurance from the Lord.
Those who are ever absorbed in selfless deeds for the welfare of mankind, are assured of the protection of their yoga by the Lord Himself.
The Yogakshema of one’s worldly interests
The Lord also ensures the yogakshema of the devotees’ worldly needs. He looks after their every requirement, for they themselves are oblivious to their own bodily needs. The Lord organises every aspect of their journey of life.
Little one, the Lord’s devotee never goes hungry; the Lord’s devotee never experiences sorrow. The motiveless yagya, undertaken by one who lives only for the Lord’s name, will ultimately always bear fruit.
Even if the devotee is defeated time and again, his ultimate victory is ensured. The proud and the arrogant keep winning, but ultimately meet with defeat. Who spares the life of one established in selfless deeds and one who has renounced all action for personal benefit?
1. Little one, selfish people who use such a one for personal gain will never give him anything.
2. Those who use him to establish their reputation will give him nothing.
3. Those who seek material gain from him will naturally give him nothing.
4. Those who expect him to grant them Self-realisation will always be annoyed with him.
5. Those who seek self-establishment through him will not give him anything in return.
Then consider, how shall such a one subsist? Who will sustain such a one? He gives every moment of his day for the fulfilment of others’ tasks. He is prepared to risk his name and reputation for the establishment of the other. Then how shall such a one obtain his means of livelihood?
The Lord proclaims, “It is I who ensures the protection of his yoga!”
The Lord instils in the other a desire to help such a one incognito. It is He who inspires generosity in another’s heart towards that selfless being. If the Lord seemingly takes away his all, He also dons another garb to protect His devotee too.
Little one, a little while ago the Lord proclaimed, “I Myself am all the meritorious qualities,” and “I am yagya also.” It is as if He is donning this form in order to protect His devotee who is established in yoga. Thus disguised, the Lord Himself:
a) ensures the gross protection of the egoless Atmavaan’s material possessions;
b) ensures the protection of that egoless Atmavaan’s subtle realms;
c) ensures the protection of that egoless Atmavaan’s knowledge.
Little one, now the Lord Himself has given you His assurance. Why do you not believe His Word and renounce the body idea? This body will perish and leave you one day. The true test would be if you could renounce the body whilst still alive!
अध्याय ९
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।
शब्दार्थ :
१. जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्त जन,
२. निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए, मेरी उपासना करते हैं,
३. उन नित्य युक्त पुरुषों का योग क्षेम मैं स्वयं करता हूँ।
तत्व विस्तार :
अनन्य का अर्थ है, अनन्य निष्ठ, एक निष्ठा वाला, एक ही में लीन, अविभाजित।
भगवान कहते हैं कि, “जो पुरुष निरन्तर मुझ में ही ध्यान रखते हैं, उनका योग क्षेम मैं आप करता हूँ।”
नन्हीं! जो निरन्तर आत्मा में ध्यान रखते हैं,
क) वे तो निरन्तर सहज जीवन में सम्पूर्ण कर्म भगवान के लिये ही करते हैं।
ख) इस कारण वे सम्पूर्ण कर्म फल की चाहना त्याग कर ही करते हैं।
ग) यानि, उनके सम्पूर्ण कर्म निष्काम भाव से ही होते हैं।
घ) उनका जीवन तो अखण्ड यज्ञ ही बन जाता है।
ङ) वे तो सबके हितकर तथा कल्याणकर कर्म ही करते रहते हैं।
च) वे अपना तन, मन और धन औरों के कल्याण अर्थ ही इस्तेमाल करते हैं।
छ) वे सब कुछ औरों की स्थापना अर्थ ही करते हैं।
ज़रा सोचो! उनकी दिनचर्या में उनका अपना ध्यान कौन रखता है? यानि, उनके अपने तनो जीवन का निर्वाह कैसे होता है?
इसके बारे में भगवान कहते हैं कि, “उनका योग क्षेम मैं स्वयं करता हूँ।”
इसके दो अर्थ हो सकते हैं और वास्तव में दोनों ही ठीक हैं क्योंकि दोनों काज भगवान ही करते हैं।
साधना का योग क्षेम :
ऐसे अनन्य भक्तों के योग, साधना तथा आनन्द का संरक्षण भगवान करते हैं। ऐसे अनन्य भक्तों को नित्य तृप्त भगवान स्वयं बना देते हैं। क्यों न कहें अनन्य भक्ति के परिणाम रूप में ये भक्त अपने प्रति उदासीन हो जाते हैं। वे नित्य आनन्द पाते हैं। उनके योग का क्षेम भगवान करते हैं।
नन्हीं! योग चाहुक उपासक गण के योग का संरक्षण तब ही हो सकता है, यदि उनके जीवन में उन्हें ऐसी परिस्थितियाँ मिलें जहाँ वे अपने योग का अभ्यास परिपक्व कर सकें।
अधिकांश, विपरीतता में ही भागवद् गुण पल सकते हैं और भागवद् गुणों का अभ्यास हो सकता है। तो क्यों न कहें कि भगवान साधक के योग के संरक्षण अर्थ ही उसे जीवन में इतनी विपरीतता देते हैं।
इससे यह न समझ लेना कि अनुकूलता में साधना नहीं होती। वास्तव में साधना केवल अनुकूलता में ही होती है, क्योंकि साधना केवल सुखी ही कर सकता है। सुखी वह है, जिसे जीवन में विपरीतता प्रभावित नहीं करती।
भक्त गण तो इस आश्वासन को पाकर झूम उठते हैं।
जो निरन्तर भागवत् अर्थ सर्वभूत हितकर तथा निष्काम कर्म में लगे रहते हैं उनका योग क्षेम भगवान स्वयं करते हैं।
सांसारिक योगक्षेम:
भक्त जनों का सांसारिक योगक्षेम भी भगवान ही करते हैं। उनकी हर व्यवस्था का ध्यान मानो भगवान स्वयं ही करते हैं। वे तो अपने तन की सुध बुध ही नहीं लेते, किन्तु भगवान मानो स्वयं ही उनकी जीवन यात्रा का मानो पूर्ण प्रबन्ध कर देते हैं।
नन्हीं! भगवान के भक्त कभी भूखे नहीं मरते, भगवान के भक्त कभी दु:खी नहीं होते। भगवान के नाम के लिये जीने वाले लोगों के निष्काम यज्ञ भी अन्त में नित्य सफल ही होते हैं।
भक्त हमेशा हारता रहे तो भी अन्त में वह जीत जाता है। गुमानी हमेशा जीतता भी रहे तो भी अन्त में हार जाता है। नित्य निष्काम कर्म स्थित, या कहें काम्य कर्म त्यागी को कौन जीवित रखता है?
1. नन्हीं! उनसे काम करवाने वाले स्वार्थी तो उन्हें कुछ देंगे नहीं।
2. उनसे अपना मान स्थापित करवाने वाले तो उन्हें कुछ देंगे नहीं।
3. उनसे धन माँगने वाले तो उन्हें कुछ देंगे नहीं।
4. उनसे स्वरूप माँगने वाले तो अनेकों बार उनसे नाराज़ भी हो जायेंगे।
5. अपनी स्थापना चाहने वाले तो उन्हें कुछ देंगे नहीं।
तो सोचो, उन बेचारों की दिनचर्या कैसे चलेगी? कौन उन्हें पालेगा? वे तो अपने दिन के चौबीस घण्टे औरों के काज अर्थ दे देते हैं। वे तो दूसरों को स्थापित करने के लिये अपने मान की भी बाज़ी लगा देते हैं। तो तुम्हीं सोचो वे जियें कैसे?
उनके लिये भगवान कहते हैं कि, “उनका योग क्षेम मैं करता हूँ।”
वह किसी के हृदय में गुप्त दानी का भेष धरने की अभिलाषा उत्पन्न कर देते हैं। वह किसी के हृदय में उदारता को जन्म दे देते हैं। यदि भगवान एक ओर से सब ले लेते हैं तो दूसरे रूप में आकर उसी साधक का संरक्षण भी करते हैं।
नन्हीं! भगवान कुछ काल पहले सम्पूर्ण शुभ गुणों को “मैं ही हूँ” कह कर आये हैं, “यज्ञ मैं ही हूँ” कह कर आये हैं। यह स्वयं मानो यह रूप धर कर ऐसे योग में स्थित का संरक्षण करते हैं। वह स्वयं मानो वह रूप धर कर ऐसे,
1. मैं रहित आत्मवान् के स्थूल का संरक्षण करते हैं।
2. मैं रहित आत्मवान् के सूक्ष्म का संरक्षण करते हैं।
3. मैं रहित आत्मवान् के ज्ञान का संरक्षण करते हैं।
नन्हूँ! अब तो भगवान ने भी आश्वासन दे दिया है। अरी! तू क्यों नहीं भगवान का आश्वासन मान लेती और तनत्व भाव को त्याग देती? मर कर तन तो छूट ही जायेगा, यदि जीते जी छोड़ दो तो मज़ा आ जाये।