Chapter 9 Shloka 18

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।

प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

I am the Supreme Goal of all,

the Lord, Witness, Well Wisher

in whom all can dwell and take refuge.

I am creation, sustenance and destruction.

I am also the imperishable seed.

Chapter 9 Shloka 18

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।

प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

The Lord says:

I am the Supreme Goal of all, the Lord, Witness, Well Wisher in whom all can dwell and take refuge. I am creation, sustenance and destruction. I am also the imperishable seed.

Granting a divine vision of His existence in the manifestation of the world, the Lord says, “I am the Supreme Goal of all.”

Gati (गति) – Goal

1. I am the goal which all wish to attain.

2. I am the aim of each one’s life.

3. I am the destination towards which every life travels.

Little one, everyone desires the Lord whether they acknowledge the Lord’s proclamation or not. Love is the Lord’s Essence and everyone desires love. Freedom is the core of the Lord and each one desires freedom. The Lord’s very nature is fearlessness and each one desires to be fearless. Eternal bliss is the Lord’s very substance. Each one wishes to taste such bliss. Eternal satiation is similarly sought by all and is the basic essence of the Lord. Little one! Actually everyone wishes to become like the Lord Himself!

Bhartaa (भर्ता) – Sustainer

The Lord says, “I am the sustainer of all.” In other words, “I am the one who nurtures and looks after the world; I am the Master of the entire universe.” It is He who endows strength to all.

Saakshi (साक्षी) – Witness

1. He is witness to the sins and the virtues of the entire world.

2. He is witness to all the actions of all beings.

3. He is the eyewitness who can give testimony of every action.

Sharanam (शरणं) – the Supreme Refuge

The Lord Himself is the security of everyone who seeks refuge in Him. He is the support of the sorrowful and grants aid to the afflicted.

Suhrid (सहृत्) – Well-wisher

He alone is the well-wisher of the entire universe – He has the welfare of the world at heart. He is a friend to all and ever works for the well-being of all, seeking nothing in return.

Prabhu (प्रभुः) – the Lord

The Lord is the creator of all and the source, the origin, the cause of existence. It is He who gives birth to this entire creation.

Pralaya (प्रलयः) – the Destroyer

He is also the Terminator. It is He who is the destruction of every object; He is death.

Sthaanam (स्थानं) – the Abode

He is also the abode where creation, sustenance and dissolution take place.

Nidhaanam (निधानं) – the Receptacle

He is that repository, where the karma seeds of birth after birth lie latent, where the fruits of several lives lie protected. The Lord says, “I am also those imperishable seeds.”

The imperishable seeds of karma

“I am those seeds of action which sprout forth again and again, the origin of the fruit of action which is enlivened again and again.” It is He who is the origin and cause of all creation in the form of those seeds that never perish.

Little one, the Lord is not making this proclamation as an embodied, manifest form but as the Atma Itself. Try to see this from the Lord’s point of view. You cannot understand the essence of the Lord’s words as long as you remain bound to one body. So attempt to imagine, even for a short time, that you are not the body.

Little one, assume that you are not this body called ‘Abha’. Imagine that you have left the body. Your body is burning on the pyre and you are watching it from afar. Then consider, what is now yours and what belongs to you no more? You can now dwell in any body and use it to view the world. All the objects of the world are now yours! Only your body has ceased to exist. Your name is no more. You no longer have any organs of perception or action whereby you can enjoy the world. Nor do you have the words to claim rights over the world. You can witness everything, but in silence. You will not be able to call anyone your own, nor will you be able to disclaim anyone as not your own! You will have no claims on anybody, nor will anyone be able to have any claims on you. Then whom will you be able to call your own?

Little one, then either all will be yours, or nothing. If you identify, your identification will be with everyone – and if you separate yourself, it will be from everyone! Practice this and you will understand what the Lord is saying.

You know not what you were in your past life. And no matter who you were, it is of no consequence today. You can consider yourself to be the author of all the Scriptures, or an ordinary seeker. How does it matter? If you are not the body, time will hold no significance for you. Then, from the Atma’s point of view, you are verily all. You will know this as a tangible fact.

अध्याय ९

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।

प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।

भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. सबका लक्ष्य,

२. प्रभु, साक्षी, निवास और शरण लेने योग्य सुहृद्,

३. उत्पत्ति, स्थिति, लय तथा प्रलय

४. और अविनाशी बीज मैं ही हूँ।

तत्व विस्तार :

अब भगवान संसार की पूर्णता में अपना रूप दर्शाते हुए कहते हैं कि “सबकी गति मैं ही हूँ,” यानि :

गति:

1. सबका लक्ष्य मैं ही हूँ।

2. सबके जीवन का उद्देश्य मैं ही हूँ।

3. सबके जीवन की मंज़िल मैं ही हूँ।

देख नन्हीं! भगवान को सब ही चाहते हैं, चाहे वह इसे माने या न माने! प्रेम भगवान का स्वरूप है और सभी प्यार चाहते हैं। स्वतंत्रता भगवान का स्वरूप है और स्वतंत्रता तो सब चाहते हैं। निर्भयता भगवान का स्वरूप है और निर्भयता सब चाहते हैं। नित्य आनन्द भगवान का स्वरूप है और नित्य आनन्द सब चाहते हैं। नित्य तृप्ति भगवान का स्वरूप है और तृप्ति पाने के लिये सब लोग तड़पते हैं। नन्हीं! वास्तव में लोग भगवान जैसा ही बनना चाहते हैं।

भर्ता :

भगवान कहते हैं, “सबका भर्ता भी मैं ही हूँ।” यानि, ‘सारे संसार का पोषण करने वाला, सारे संसार का पालन करने वाला, सारे संसार का मालिक भी मैं ही हूँ।’ यानि, सारे संसार का पालन करने वाले भगवान ही हैं। सारे संसार को बल देने वाले भी वह ही हैं।

साक्षी :

भगवान ही साक्षी भी हैं अर्थात् :

1. सम्पूर्ण संसार के पाप तथा पुण्य को देखने वाले भगवान हैं।

2. जीव के सम्पूर्ण कर्मों के गवाह रूप साक्षी भगवान हैं।

3. सबूत देने वाले चश्मदीद गवाह भी भगवान ही हैं।

निवास :

भगवान ही पूर्ण जग का निवास स्थान हैं, अर्थात्, संसार के रहने का स्थान हैं, जिसमें सम्पूर्ण संसार स्थित है।

शरण :

भगवान ही सम्पूर्ण अशरण लोगों की शरण हैं। वह स्वयं सम्पूर्ण दु:खियों का आसरा हैं और स्वयं ही तड़पे हुए लोगों का सहारा हैं।

सुहृद् :

भगवान ही अखिल संसार के सुहृद् हैं, अखिल संसार का कल्याण करने वाले हैं, अखिल संसार के प्रति मैत्री पूर्ण हैं, अखिल संसार में सबका उपकार करने वाले हैं और प्रतिरूप में कुछ नहीं चाहते।

प्रभु :

संसार की उत्पत्ति भी भगवान ही हैं। संसार का उद्गम स्थान भगवान ही हैं। संसार का उत्पत्ति कारण भी भगवान हैं, संसार के जन्म दाता भी भगवान ही हैं।

प्रलय :

यहाँ कहते हैं कि प्रलय भी भगवान ही हैं। यानि, हर विषय का नाश और मृत्यु भी भगवान ही हैं।

स्थान :

अर्थात् वह स्थान, जहाँ उत्पत्ति, स्थिति और लय होती है, वह भी वही हैं।

निधान :

निधान भी भगवान हैं। यानि, वह कोष, जहाँ जन्म जन्म के कर्म बीज छिपे रहते हैं, जहाँ जन्म जन्म के कर्म फल सुरक्षित रहते हैं, भगवान कहते हैं, कि वे बीज भी वह ही हैं।

अविनाशी बीज :

यानि कर्मों के फल का बीज जो पुन: उभर आता है, कर्मों के फल का मूल जो पुन: सप्राण हो जाता है, भगवान कहते हैं, कि, “वह अविनाशी बीज मैं ही हूँ।” अपनी इस उत्पत्ति का कारण रूप, नित्य विनाश रहित बीज भी वह आप ही हैं।

नन्हीं! यह सब भगवान एक तन के नाते नहीं कह रहे, बल्कि आत्मा के नाते कह रहे हैं। इसे भगवान के दृष्टिकोण से देखने की कोशिश कर। जब तक तुम अपने आपको एक तन से बाँध कर रखोगी, तब तक तुम्हे यह राज़ समझ नहीं आयेगा। कुछ पल के लिये यह समझने का प्रयत्न कर, कि तू तन नहीं है।

नन्हीं! अनुमान ही लगा ले कि तू ‘आभा’ नहीं है। कल्पना ही करके देख कि तूने तन छोड़ दिया है। कल्पना ही करके देख कि तेरा तन चिता पर जला दिया गया है और तू दूर से इसे देख रही है। फिर सोच! तब तुम्हारा क्या अपना होगा और क्या अपना नहीं होगा? फिर तू जिस तन में चाहे बैठ जाये और उसकी आखों राही संसार को देख ले। फिर तू जिस विषय को चाहे अपना समझ ले। केवल तेरा रूप ही नहीं रहेगा। केवल तेरा नाम ही नहीं रहेगा। तुम्हारे पास उपभोग करने के लिये इन्द्रियाँ ही तो नहीं होंगी, तुम्हारे पास हक़ जमाने के लिये ज़ुबान नहीं होगी। तब तू देख तो सब सकेगी, किन्तु मौन में फिर न किसी को अपना कह सकेगी न पराया कह सकेगी। फिर न तेरा किसी पे हक़ रहेगा, न किसी का तुझ पे हक़ रहेगा। तब सोचो तू किसे अपना कहेगी?

नन्हीं! तब या सब तुम्हारा ही होगा, या कुछ भी तुम्हारा नहीं होगा। यदि तद्‍रूपता करोगी तो पूर्ण से करोगी और यदि अलग हो जाओगी तो भी पूर्ण से अलग हो जाओगी। इसे ज़रा सोच कर देख। इसका ज़रा अभ्यास करके देख। शायद तब कुछ समझ आये।

पिछले जन्म में तुम क्या थी, तुम क्या जानो और जो कुछ भी थी, आज तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है? यदि तुम चाहो तो अपने आप को सम्पूर्ण शास्त्रों का रचयिता मान लो या साधक मान लो, इससे क्या फ़र्क पड़ता है? यदि तुम तन ही नहीं हो तो काल कोई अर्थ ही नहीं रखता। फिर आत्मा के नाते सब कुछ तुम ही हो, यह जान लोगी।

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