Chapter 9 Shloka 15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।१५।।

Many worship Me (as Vaishvanar or the Universal Form)

through the yagya of knowledge, knowing Me to be

as none different from them (regarding everything

as Vaasudeva – the Lord Himself) whilst many others

worship Me in varied forms, and some others worship,

believing themselves to be different from Me.

Chapter 9 Shloka 15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।१५।।

Describing the varied methods of Upasana, the Lord says:

Many worship Me (as Vaishvanar or the Universal Form) through the yagya of knowledge, knowing Me to be as none different from them (regarding everything as Vaasudeva – the Lord Himself) whilst many others worship Me in varied forms, and some others worship, believing themselves to be different from Me.

Little one, explaining the Upasana of various types of devotees, the Lord says:

1. Some worship Me through gyan yagya.

2. They worship My Essence that pervades all manifest forms.

3. They worship My Vaishvanar form – as the Supreme Lord who abides in this entire universe.

4. They worship Me in all the manifest forms of creation. They serve Me by serving the world, seeing it they think of me, they have a reverential attitude towards My creation, endeavouring to attain Me through their devotional service.

Actually, they seek to merge in the totality of the Whole.

Such worshippers endeavour through the strength of their intellect:

a) to annihilate the ego;

b) to erase their mental attachments;

c) to cast off the feeling of doership;

d) to offer themselves as oblation in the Yagya of the Supreme.

They perform noble deeds for the welfare of the world and seek to erase all trace of themselves.

They offer through their yagya:

a) the oblation of their attachment and ego;

b) the oblation of their moha and ignorance;

c) the oblation of their entire world.

Some worshippers perform the yagya of knowledge, dwelling in non-duality and believing themselves to be an integral part of their Supreme Lord. Others perform the yagya of devotion, believing the ‘I’ to be distinct from the Lord. Still others worship the Essence of the Atma in varied ways. But remember little one, all of them worship only God.

अध्याय ९

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।१५।।

अब भगवान लोगों की भिन्न भिन्न उपासना विधि का वर्णन करते हुए कहने लगे :

शब्दार्थ :

(और कई लोग मुझ विश्व रूप वैश्वानर को)

१. ज्ञान के आधार पर,

२. यज्ञ करते हुए, उपासना करते हुए, एक भाव से (यानि सब वासुदेव ही हैं, जान कर),

३. और अन्य बहुत प्रकार से मुझे उपासते हैं

४. और दूसरे, अपने आपको पृथक् मान कर उपासते हैं।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! अब भगवान भिन्न भिन्न लोगों की उपासना को समझाते हैं और कहते हैं, कि :

क) कई लोग ज्ञान यज्ञ करते हुए मुझे ही उपासते हैं।

ख) वे मेरे अखिल रूप तत्व को उपासते हैं।

ग) वे मेरे वैश्वानर रूप तत्व को ही उपासते हैं।

घ) वे मेरे को संसार रूप जान कर उपासते हैं। उसकी सेवा करते हैं, उसे देखकर मेरा भान करते हैं, उसके प्रति पूज्य भाव रखते हैं, उसके राही मुझे पाने का प्रयत्न करते हैं।

वास्तव में वे पूर्ण की पूर्णता में ही विलीन होना चाहते हैं।

ऐसे उपासक बुद्धि द्वारा,

1. अपना अहं मिटाना चाहते हैं।

2. अपना मनो संग मिटाना चाहते हैं।

3. अपना कर्तृत्व भाव मिटाना चाहते हैं।

4. परम के यज्ञ में अपना आप अर्पित करना चाहते हैं।

वे सम्पूर्ण जहान के लिये भी श्रेष्ठ कर्म करते हैं और अपना सर्वस्व मिटाना चाहते हैं।

वे यज्ञ में मानो :

1. अपने संग और अहं की आहुति देते हैं।

2. अपने मोह तथा अज्ञान की आहुति देते हैं।

3. अपने जहान की भी आहुति दे देते हैं।

कुछ उपासक अद्वैत में, एकत्व रूप में बैठ कर ज्ञान यज्ञ करते हैं। कुछ अन्य उपासक ‘मैं’ और भगवान को पृथक् पृथक् जान कर भक्ति यज्ञ करते हैं तथा अन्य कई लोग नाना रूप में आत्म तत्व को उपासते हैं। किन्तु याद रहे नन्हीं! ये सब भगवान की ही उपासना करते हैं।

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