अध्याय ९
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।१३।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. किन्तु हे अर्जुन! दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्मा गण हैं,
२. वे मेरे को सब भूतों का सनातन कारण, नाश रहित, अक्षर स्वरूप जान कर,
३. अनन्य मन से निरन्तर मेरा भजन करते हैं।
तत्व विस्तार :
नन्हीं जान्! अब यह समझ कि कैसे लोग भागवद् पूजन करते हैं। दैवी प्रकृति आश्रित लोग,
क) आत्मज्ञान को जानते हैं।
ख) पूर्ण आत्म तत्व है, यह वे जानते हैं।
ग) पूर्ण रचना परम की है, यह वे मानते हैं।
घ) गुण खिलवाड़ का राज़ वे जानते हैं।
ङ) तन मृत्यु धर्मा है, यह वे जानते हैं।
च) परम तत्व यज्ञ राही मिलता है, यह वे जानते हैं।
छ) यज्ञ तनत्व भाव अभाव राही होता है, यह वे जानते हैं।
ज) तन को जग को देने का अभ्यास करते करते ही योग सफल हो सकता है, यह वे जानते हैं।
इसी के आसरे ही तो वे दैवी गुण पाये होते हैं। नन्हीं! वे महात्मा गण तो आत्मवान् बनने के लिए निरन्तर,
1. आत्म तत्व पर ध्यान लगाते हैं।
2. सत् स्वरूप को साक्षी बना कर कार्य कर्म करते हैं।
3. जीवन में यज्ञमय कर्म करते रहते हैं।
4. अपने कर्म भगवान पर अर्पित करते रहते हैं।
परम की लग्न में वे इतने खो जाते हैं कि उन्हें ‘मैं’ की सुध बुध ही नहीं रहती। वे तो अव्यय अक्षर आत्मा की जुदाई सह ही नहीं सकते। वे लोग दैवी प्रकृति के आश्रित होते हैं।
वे भगवान को ही सम्पूर्ण भूतों का कारण जान कर :
क) उनके प्रति अपना कर्तव्य निभाते हैं।
ख) उनकी सेवा करते रहते हैं।
ग) उनकी विपरीतता पर ध्यान नहीं देते।
घ) उनके स्वप्नों को पूरा करने के यत्न करते रहते हैं।
वे जहान से कुछ नहीं चाहते पर जहान की सेवा करते हैं। उन्हें तो केवल भगवान ही चाहिये। वे तो नित्य भागवद् नाम में मस्त रहते हैं। उनके मन में भगवान के बिना और कोई भाव ही नहीं उठता। वे जीवन में भागवद् गुणों को ही इस्तेमाल करते हैं तथा दैवी सम्पदा का प्रमाण स्वयं होते हैं।
नन्हीं! वे उदार हृदय होते हैं, वे अनसूय होते हैं, श्रद्धा युक्त होते हैं। वे तो बुरों को भी बुरा नहीं कहते और उनके साथ भी अच्छा व्यवहार करते हैं। वे तो प्राणी मात्र से प्रेम भरा व्यवहार करते हैं। वे भगवान का नित्य भजन करते हैं। उनका जीवन भगवान की ही एक संगीत लड़ी होती है और उनके जीवन में भागवद् रहस्य प्रकट होता है।