Chapter 9 Shloka 11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।११।।

Those foolish souls who are

ignorant of My Supreme Existence,

as the Peerless Lord of all beings,

don human bodies and know Me not.

Chapter 9 Shloka 11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।११।।

Those foolish souls who are ignorant of My Supreme Existence, as the Peerless Lord of all beings, don human bodies and know Me not.

The Lord proclaims:

1. I am the Atma Itself.

2. I am the Eternal Atma Self.

3. I am the Supreme, Pure, Divine Form.

4. I am the support of the Universe and the Lord of this entire Creation.

5. I control and regulate the world.

6. I am the Sustainer and Nourisher of the universe.

7. I am the Lord of all – the Supreme Monarch.

8. I am the eternal, formless, unmanifest Essence.

9. I transcend destruction – I am the Indestructible Essence. I create the law that rules the world and take birth to establish dharma.

My very life is:

a) Adhyatam itself or the practice of spiritual living; light itself; the proof of spirituality;

b) the practical science of the translation of knowledge into life;

c) the indestructible knowledge of Adhyatam;

d) proof of divine purity;

e) the goal of one who desires the Supreme Self;

f) the deed of That Supreme Essence;

g) a reflection of the love of That Supreme One;

h) the knowledge of That Supreme Essence;

i)  the union of the manifest and unmanifest.

My life is the standard for assessing what you must do and also what you must refrain from doing. You can clarify through the example of My blemishless life as to where you make a mistake, why you fail and where you lose track of the right path.

I have created such a beautiful universe, in which the individual can live in complete bliss. Try to understand why you have lost that unalloyed joy. I, the eternal, indivisible, unmanifest Self, create a divine body; but foolish people, ignorant of My divinity, do not recognise My Essential Being.

Thus the Supreme Brahm says:

a) I do not claim the body;

b) I do not become attached;

c) Greed and desire cannot touch Me;

d) I too, in My manifest form, am controlled by qualities as is any ordinary person – yet I transcend all qualities.

e) I am blemishless and beyond duality;

f) I am proof of indifference towards the body self;

g) I am equanimity itself and I am ever untouched;

h) I am proof of selflessness and am the performer of ceaseless yagya.

i)  I transcend the attributes of Prakriti, yet My body is subservient to Prakriti.

j)  Circumstances and human beings are so adverse that I should rightly be sorrow epitomised; yet I am the embodiment of bliss.

You can understand all this in the following terms. The Lord is saying:

1. I am the Lord.

2. I am without form.

3. I am the support of all.

4. It is surprising that people do not know Me; yet I am ever silent.

5. Those foolish ones do not recognise Me, yet I am silence itself.

O Aspirant! You too must become silent like me. You too must become indifferent like Me.

However little one, look! The Lord now says, ‘Maam Avjaananti’ (माम् अवजानन्ति). This means,

a) they consider Me to be insignificant;

b) they disregard Me;

c) they insult Me;

d) they neglect Me;

e) they belittle Me;

f) they consider Me unimportant.

The Lord’s words elicit tears – perhaps they also evoke mirth. However, little one, it is true that the Lord identifies with whosoever comes before Him.

1. He behaves foolishly when confronted by the foolish.

2. He seems to be extremely ordinary with ordinary people.

3. He is diplomatic; but only for the other’s benefit.

4. He accepts personal defamation in order to protect the other’s name.

5. He serves others like a humble servitor, as a result of which they even trample upon Him.

6. He is willing to auction His own reputation in order to protect the reputation of the other.

7. He is willing to burn his own castle in order to protect another’s hut.

8. He spends a lifetime being sincere even with the insincere.

9. He maintains the name and reputation of even the ones who besmirch His own Name.

10. He is proud with the arrogant and bows at the feet of the humble.

He does everything to fulfil another’s need but is completely silent towards his own requirements. It seems almost as though He does not value his own reputation, wealth, comforts etc.

Little one, such a one is so very humble that it is well nigh impossible to recognise him. Even His haughtiness is actually His humility. Even His arrogance is actually His humility, for it is mostly with those who are in a position to heap insults upon Him that He is unbending and rigid.

His manner is arrogant with those who take pride in their knowledge, but never with those who protect the reputation of others, nor does he oppose those who seek alms. Therefore He always suffers ill repute. Who can understand such a one?

Little one, His body is like a small, impish orphan, which exposes everyone. Nobody appreciates such exposure, no one wants to face the truth about himself, nor lose his status – whereas That Indestructible Atma Self – divinity, purity and silence itself, remains ever the subject of scorn and abuse.

अध्याय ९

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।११।।

शब्दार्थ :

१. मेरे परम भाव को, (यानि) पूर्ण भूतों के महा ईश्वर भाव को न जानने वाले लोग,

२. मनुष्य का शरीर धारण करने वाले,

३. मुझको नहीं जानते हैं।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं :

1. ‘मैं आत्म स्वरूप, आत्म तत्व आप हूँ।

2. मैं नित्य शाश्वत आत्म स्वरूप आप हूँ।

3. मैं परम विशुद्ध, दिव्य रूप आप हूँ।

4. मैं विश्व आधार, विश्वेश्वर आप हूँ।

5. मैं जगत नियन्ता, अनुमन्ता आप हूँ।

6. मैं जगत धाता, भरण पोषण कर्ता सब आप हूँ।

7. मैं पूर्ण पति परमेश्वर आप ही हूँ।

8. मैं नित्य निराकार, नित्य अव्यक्त तत्व आप ही हूँ।

9. मैं अक्षर स्वरूप, अक्षर तत्व आप ही हूँ। मैं ही जगत का विधान रचता हूँ। मैं ही धर्म संस्थापन अर्थ जन्म लेता हूँ।

मेरा जीवन ही,

क) अध्यात्म है, प्रकाश है, प्रमाण है;

ख) अध्यात्म ज्ञान का विज्ञान है;

ग) अध्यात्म का अविनाशी ज्ञान है;

घ) दिव्य विशुद्धता का प्रमाण है;

ङ) स्वरूप चाहुक का लक्ष्य है;

च) उस परम तत्व का कर्म है;

छ) उस परम तत्व का प्रेम है;

ज) उस परम तत्व का ज्ञान है;

झ) व्यक्त अव्यक्त का मिलन है।

तुम्हें क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिये, मेरा जीवन ही इसकी तुला है। कहाँ गलती हो गई जीव से, यह तुम मेरे जीवन से देख सकते हो। साधक कहाँ हार गया और कहाँ पे पथ से बिछुड़ गया, यह तुम मुझे देख कर समझ सकते हो।

मैंने इतना सुन्दर ब्रह्माण्ड रचा है, इसमें जीव नित्य आनन्द में रह सकता है। आनन्द यहाँ क्यों नहीं रहा, इसका राज़ समझ! नित्य अखण्ड, निराकार, मैं एक दिव्य तन रच देता हूँ पर मूर्ख लोग मुझको जानते नहीं, मेरी दिव्यता पहचानते नहीं हैं।’

साक्षात् परम ब्रह्म भगवान मानो कहते हैं :

क) ‘मैं तन नहीं अपनाता।

ख) मैं संग कभी नहीं करता।

ग) लोभ तृष्णा मुझे छू नहीं सकते।

घ) मैं साधारण पुरुष के समान गुण बधित हूँ फिर भी गुणातीत हूँ।

ङ) मैं निर्विकार निर्द्वन्द्व हूँ।

च) मैं उदासीनता का प्रमाण हूँ।

छ) मैं समचित्त, नित्य निर्लिप्त हूँ।

ज) मैं निष्कामता तथा अखण्ड यज्ञ का प्रमाण हूँ।

झ) मैं प्रकृति के गुणों से सर्वथा अतीत हूँ फिर भी मेरा तन प्रकृति के अधीन ही है।

ञ) परिस्थितियाँ और जीव इतने विपरीत हैं कि मुझे दु:खघन होना चाहिये फिर भी मैं आनन्द स्वरूप हूँ।’

इसे समझना है तो यूँ समझो! भगवान कह रहे हैं,

1. ‘मैं ही भगवान हूँ।

2. मैं निराकार ही हूँ।

3. मैं ही सबका आधार हूँ।

4. अजीब बात है, लोग मुझे जानते ही नहीं, फिर भी मैं मौन रहता हूँ।

5. ये मूर्ख लोग मुझे पहचानते ही नहीं, पर फिर भी मैं अखण्ड मौन स्वरूप हूँ।

साधक! तू भी मेरी तरह मौन हो जा। तू भी मेरी तरह उदासीन हो जा।’

किन्तु देख नन्हीं! भगवान ने कहा, ‘माम् अवजानन्ति’ इसका अर्थ है,

क) मुझे तुच्छ समझते हैं।

ख) मेरा अनादर करते हैं।

ग) मेरा तिरस्कार करते हैं।

घ) मेरी अवहेलना करते हैं।

ङ) मुझे नीचा दिखाते हैं।

च) मुझे अल्प समझते हैं।

छ) मुझे महत्वहीन समझते हैं।

यह सुन कर रोना भी आता है और शायद हंसी भी आती हो! किन्तु नन्हीं! यह बात बिल्कुल सच है। जो सामने आये भगवान उसके तद्‍रूप हो जाते हैं।

1. मूर्खों के साथ वह मूर्खवत् वर्तते हैं।

2. साधारण जीवों के साथ साधारण होकर रहते हैं।

3. नीतियाँ भी करते हैं, परन्तु सब दूसरों के लिये।

4. लोगों का मान बचाने के लिये वह स्वयं महा अपमानित भी हो जाते हैं।

5. वह यक्ष या नौकर की तरह लोगों के काम करते हैं तो लोग उन्हें पांव तले कुचल भी देते हैं।

6. किसी दूसरे की इज्ज़त बचाने के लिये वह अपनी इज्ज़त दाँव पर लगा देते हैं।

7. किसी की झुग्गी बचाने के लिये वह अपना आशियाँ जला देते हैं।

8. बेवफ़ा से वफ़ा करते हुए वह सारी उम्र बिता देते हैं।

9. जो उन पर नित्य कलंक लगाता रहता है, वह उसकी भी इज्ज़त बनाये रखते हैं।

10. गुमानी सामने आये तो वह गुमान करते हैं, झुका हुआ सामने आये तो वह उसके पाँव में पड़ जाते हैं।

बात उलटी होनी चाहिये थी। जब लोगों का मतलब होता है तो वह सब कुछ करते हैं, जब अपना मतलब होता है तो वह मौन हो जाते हैं। अपना मान, धन, सुविधायें या आराम तो मानो उनको भाता ही नहीं।

नन्हीं! इतनी ही बात नहीं, वह वास्तव में इतने झुके हुए होते हैं कि उन्हें पहचानना मुश्किल है। उनका अकड़ना भी उनका झुकाव है। वह अधिकांश वहाँ अकड़ते हैं, जहाँ दूसरा उनका काफ़ी अपमान कर सकता है।

ज्ञान गुमानियों के पास वह अकड़ते हैं, इज्ज़त बचाने वालों के पास नहीं अकड़ते, भिखारियों के साथ नहीं लड़ते वह। इस कारण वह नित्य बदनाम ही रहते हैं। उन्हें कौन समझ सकता है?

वास्तव में नन्हीं! उनका तन एक नन्हा सा नटखटिया यतीम होता है, वह सबका भण्डा फोड़ देता है। न कोई अपना चेहरा देखना चाहता है और न कोई अपना मान गंवाना चाहता है। बाकी रह जाते हैं बेचारे भगवान! बाकी रह जाते हैं अखण्ड आत्म स्वरूप, दिव्य, विशुद्ध, मौन आत्मा, जो नित्य बदनाम होते रहते हैं।

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