Chapter 9 Shloka 8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।८।।

I repeatedly create this multitude of beings,

taking the support of My own Prakriti,

and subject to the control of Prakriti.

Chapter 9 Shloka 8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।८।।

Bhagwan says:

I repeatedly create this multitude of beings, taking the support of My own Prakriti, and subject to the control of Prakriti.

The Lord now expresses His limitations. He says:

a) “I bestow the fruits of action in accordance with the seeds of that individual’s actions.

b) Taking the support of My own Prakriti, I am compelled to create this entire world.

c) Remember, the Lord too, acts under constraint. His Prakriti creates all – He does naught independently.

d) Everything happens automatically, but the principle mainstay is Truth.

e) Qualities interact with other qualities and it is under the influence of these qualities that birth and death take place.

f) Destiny is created with the support of these attributes.

g) The universal law too, is created with help from these attributes.

­­–  But their essential support is Truth. It is Truth that breathes life into them.

­­–  They are established in the Truth.

­­–  They receive all from that Truth.

­­–  It is Truth that creates and sustains them.”

Little one, understand from this that the Lord has granted a mighty power to the individual, based on which he re-creates his world over and over again. That power is the power of Truth. That power lies in whatever thought or belief the individual deems is the Truth, it lies in remembering, in ‘using’ it in one’s life. Whatever you practice as the Truth in your life, that same Truth will ultimately revisit you. This does not apply so much to gross actions as to the belief of the mind.

Our mind justifies our actions as the Truth

Our mind justifies as the truth:

a) our injustices,

b) our insincerity,

c) our wickedness,

d) our escape from duty,

e) our greed and craving,

f) our anger etc.

These justifications, which we once used to absolve ourselves from fault, will eventually take form and confront us.

Little one, one must understand this very carefully. The Lord Himself says, “Even though it is My Prakriti that creates the world, yet I too, am restrained by this same Prakriti. My Prakriti also does not change its basic attributes.”

On the one hand the Lord is restrained by His own Prakriti, and similarly, the individual too, is controlled by his nature. The Lord is unable to stop the sprouting of any karmic seed. This is His basic nature. He is the unbreakable silence itself and hence says nothing to anybody. His essential core is silence; His form interacts in accordance with the attributes of Prakriti. Little one, this is the universal essence of Brahm.

This is the individual manifest form of That Unmanifest Brahm. Little one, the Lord is imparting the theory of creation to Arjuna. That impenetrable Silence Itself stands before Arjuna in manifest form.

अध्याय ९

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।८।।

भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर,

२. प्रकृति के वश में विवश होकर,

३. इन सारे भूतों में समूह को (मैं) पुन: पुन: रचता हूँ।

तत्व विस्तार :

देख! भगवान अपनी मजबूरी बताते हैं। वह कहते हैं :

क) ‘कर्म बीज जैसे किसी के हों, मैं वैसा ही फल उसे देता हूँ।

ख) आश्रय लेकर मैं अपनी ही प्रकृति का, विवश ही पूर्ण जहान् रच देता हूँ।’

ग) याद रहे, भगवान भी विवश हैं, उनकी प्रकृति ही सब कुछ रच देती है, उनकी अपनी करनी कुछ भी नहीं है।

घ) सब स्वत: ही होता है, किन्तु सबका आधार सत् है।

ङ) गुण गुणों में वर्त रहे हैं, गुण आसरे ही जन्म मरण होता है।

च) गुण आसरे रेखा निर्माणित होती है।

छ) गुण आसरे ही विधान बनता है।

– पर उनका आधार सत् है। सत् ही उन्हें सप्राण करता है।

– उनकी स्थिति सत् में होती है।

– वह तो सत् से ही सब पाते हैं।

– उत्पत्ति, पोषण उनका सत् ही करता है।

नन्हीं! इससे यूँ समझ ले कि परमात्मा ने जीव को सहज में एक महान् शक्ति दे रखी है, जिसके बल से जीव बार बार अपना संसार रच लेता है। वह शक्ति सत् की है। वह शक्ति, जिसे आप सत् मानते हैं, उस भाव में हैं, उसकी याद में हैं, उसके इस्तेमाल में है। जिसे आप सत् मान कर जीवन में इस्तेमाल करेंगे, वह आपको मिल जायेगा, किन्तु यह स्थूल कर्मों की इतनी बात नहीं, जितनी आपके मन की बात है।

आपका मन :

1. आपके कर्मों को सत्पूर्ण कहता है।

2. आपकी ज़्यादतियों को भी,

3. आपकी बेवफ़ाई को भी,

4. आपकी दुष्टता को भी,

5. आपकी कर्तव्य विमुखता को भी,

6. आपके लोभ तथा कामना को भी,

7. आपके क्रोध को भी,

सत्‌पूर्ण ठहराता है।

अपने आपको दोष विमुक्त करने के लिये जिसे आपका मन सत्‌पूर्ण कहता आया है, वह आपके सम्मुख रूप धर कर आ ही जायेगा।

नन्हीं! यहाँ बहुत ध्यान देकर समझने की बात है। भगवान स्वयं कह रहे हैं, ‘माना कि वह प्रकृति मेरी है जो संसार को रचती है, किन्तु मैं भी तो अपनी प्रकृति के वश में हूँ। मेरी प्रकृति भी तो अपने गुण नहीं बदलती।’

भगवान एक ओर तो अपनी प्रकृति के वश में हैं, दूसरी ओर जीव अपनी प्रकृति के वश में है। भगवान किसी के बीज की उत्पत्ति को रोक नहीं सकते, यह भगवान का निहित स्वभाव है। अखण्ड मौन स्वरूप होने के नाते वह किसी को कुछ नहीं कहते। स्वरूप उनका मौन है, रूप प्रकृति वश गुणों में वर्त रहा है।

नन्हीं! यही ब्रह्म का समष्टिगत स्वरूप है। यही साकार भगवान का व्यक्तिगत स्वरूप है। नन्हीं! भगवान अर्जुन को उसके स्तर पर शब्द ज्ञान दे रहे हैं। अखण्ड मौन स्वरूप, रूप धारण करके सामने खड़े हैं।

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