Chapter 9 Shloka 5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।।५।।

Nor do those beings abide in Me.

Yet, behold the effect of My Yogmaya

the illusive power of My Yoga!

Though My Self procreates and sustains

all beings, it dwells not in those beings.

Chapter 9 Shloka 5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।।५।।

The Lord continues:

Nor do those beings abide in Me. Yet, behold the effect of My Yogmaya – the illusive power of My Yoga! Though My Self procreates and sustains all beings, it dwells not in those beings.

Little one! The Lord first said that, “All beings subsist in Me.” Now He says that, “All beings do not abide in Me.” Little one, the first statement was descriptive. Just as the Atma seems to be the procreator of all, yet it is ever the non-doer, so also, the Atma appears to be the sustainer of all beings.

The Lord says, “It seems as though I do all yet, in fact, I am ever unaffected – the eternal non-doer. Though I am without form, I am known to pervade all forms.”

So long as one claims the mortal frame, one cannot become an Atmavaan. As soon as the body idea is renounced, one realises one’s identity with the Atma and becomes an Atmavaan. This means that since the body is not the Atma, it is inert – inanimate, and the Atma does not abide in it. The Atma is separate from the body. So also, the mind, the intellect, ego and all the attributes of the individual are inanimate.

Little one, there is an illusion of Atma in the body – a mere hint. It is on account of ignorance that the individual ascribes the mind, intellect, ego, qualities, mental tendencies, resolves and aberrations to the Atma. All this is a mere play of the threefold energy of the gunas of Prakriti. The divine, eternal and pristine Atma is far beyond this. The Atma is ever silent, untouched and detached. The Atma transcends the five principle elements and the forms born of them. All this transpires within the realm of the Atma, yet the Atma is forever separate from and beyond these phenomena.

The Lord once more speaks of His Yogmaya and its captivating effect. He says, “My Atma sustains all beings and they originate from it also. Even so, my Atma is not based in those beings.”

Little one, the Lord seems to be saying here, “I have said that all beings abide in Me. In fact, it is I, who, through My divine abilities of Yoga, create and sustain them all. Despite this, understand if you can, these beings are not established in Me, nor I in them.”

Little one, if all is One, then who abides in whom? The Lord speaks here from the point of view of unshakeable non-duality – Advaita; if all is the Atma, then who abides in whom? If all is the Atma, who is the performer of which deed? Since all is Brahm, then all are one from the point of view of the Atma.

अध्याय ९

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।।५।।

अब भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. और वे सब भूत मेरे में स्थित नहीं हैं।

२. किन्तु मेरी योग माया का प्रभाव देख,

३. कि मेरा आत्मा भूतों को धारण करने वाला है

४. और भूतों को उत्पन्न करने वाला है,

५. किन्तु फिर भी भूतों में स्थित नहीं है।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! पहले भगवान ने कहा कि ‘सब भूत मुझमें स्थित हैं।’ अब भगवान कह रहे हैं कि ‘सब भूत मुझ में स्थित नहीं हैं।’ नन्हीं! जो भगवान ने कहा था कि ‘सब भूत मुझ में स्थित हैं, वह केवल कथन मात्र बात है। ज्यों देखने में आत्मा सब का कर्ता है किन्तु नित्य अकर्ता है, वैसे ही देखने में आत्मा सब का पालन पोषण करता है।

यहाँ भगवान कह रहे हैं कि, ‘देखने में मैं सब कुछ करता हूँ किन्तु वास्तव में मैं नित्य निर्लिप्त तथा नित्य अकर्ता हूँ। नित्य निराकार होते हुए भी, मैं अखिल रूप ही कहलाता हूँ।’

जब तक कोई अपने रूप को अपनाता है तब तक वह आत्मवान् नहीं बन सकता। ज्यों ही जीव अपने तनत्व भाव का त्याग कर देता है, वह आत्मवान् बन जाता है। इससे तो यही अर्थ हुआ कि तन अनात्म होने के कारण जड़ है और उसमें आत्मा नहीं है। मन, बुद्धि, अहंकार तथा जीव के सम्पूर्ण गुण जड़ ही हैं।

नन्हीं! तन में आत्मा का आभास सा होता है। वास्तव में अज्ञानता के कारण ही जीव मन, बुद्धि, अहंकार, गुण, वृत्तियाँ, संकल्प, विकल्प इन सम्पूर्ण को आत्मा पर आरोपित करता है। यह सब तो प्राकृतिक त्रिगुणात्मका शक्ति का खिलवाड़ है। दिव्य, नित्य, विशुद्ध आत्मा तो इस त्रिगुणात्मिका शक्ति से सर्वदा परे है। आत्मा तो सर्वदा मौन तथा नित्य उदासीन है। आत्मा पंच महाभूतों और पंच महाभूत रचित रूपों से परे है। होता तो सब कुछ आत्मा में ही है, किन्तु आत्मा इन से सर्वथा अतीत है।

भगवान ने यहाँ पुन: अपनी योगमाया, तथा अपने योग ऐश्वर्य के विषय में कहा। योग ऐश्वर्य से यहाँ अर्थ योगमाया का प्रभाव है। भगवान कह रहे हैं कि, ‘मेरा आत्मा ही भूतों को धारण करता है और भूतों को उत्पन्न करता है, फिर भी भूतों में मेरा आत्मा स्थित नहीं।’

नन्हीं! यहाँ भगवान मानो कह रहे हैं, ‘मैंने कहा कि सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं; वास्तव में मैं ही अपने योगैश्वर्य से उनका रचयिता और पालन पोषण कर्ता भी हूँ। फिर भी, अगर समझ सको तो समझ लो कि यह भूत मुझमें स्थित नहीं हैं और मैं भी उनमें स्थित नहीं हूँ।’

नन्हीं! यदि पूर्ण एक है तो कौन किसमें स्थित है? यहाँ भगवान अखण्ड अद्वैत के दृष्टिकोण से कह रहे हैं कि जब पूर्ण आत्मा ही है तो कौन किसमें स्थित है? जब पूर्ण आत्मा ही है, तो कौन किसका कर्म है, जब पूर्ण ब्रह्म ही है तो आत्म रूप के नाते सब एक ही हैं।

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